Monday, May 30, 2016

जनसंख्या किसीके खेलने का सामान न हो .....

          
आलेख 
जवाहर चौधरी 


 इन दिनों जब देश  के सभी राजनीतिक दल अपने अपने घरेलू मसलों में बुरी तरह से उलझे हुए हैं और चिंतित सरकार भी जश्न  मनाते हुए अपना आत्मविश्वास  बढ़ाने की कोशिश में है तब चुपके से एक आंकड़ा हमें लाल झंड़ा दिखाता नजर आता है और 30 मई 2016 को देश  की जनसंख्या 1,325,378,156 ( एक सौ बत्तीस करोड़, त्रेपन लाख, अठहत्तर हजार, एक सौ  छप्पन ) हो जाने सूचना देता है। हांलाकि अभी भी भारत विश्व  में दूसरे सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश  है लेकिन 2025 में उसका स्थान दुनिया में नम्बर वन हो जाएगा और तब हमारी जनसंख्या 146 करोड़ होगी। इन्टरनेट पर     IndianPopulation clock  दिखाई देती है जिसमें लगभग हर सेकेण्ड के साथ बढ़ती जनसंख्या को देखना एक डरावना अनुभव देता है। ( आप Indian population clock पर क्लिक कर एक बार उस घड़ी को अवश्य देखें ) जनसंख्या घड़ी बताती है कि देश  की जनसंख्या 2050 में एक सौ सत्तर करोड़ हो जाने वाली है तो हमें अपने बच्चों का ध्यान आता है कि वे किस तरह का भयानक जीवन जीने वाले हैं।  

                        आज हमारे पास रोजगार की समस्या है, हर साल लगभग सवा करोड़ की दर से बढ़ रही जनसंख्या के कारण देश  के सामने इतने रोजगार के सृजन की असंभव चुनौती है। हांलाकि सरकार अपने संभव उपायों से संघर्ष करती दिखाई देती है लेकिन अनुकूल परिणाम नहीं मिलते हैं। मेक इन इंडिया एक बड़ी पहल है जिसमें हम विश्व  के तमाम उद्योगो को अपने यहां आमंत्रित कर रहे हैं ताकि लोगों को रोजगार मिले। यह जानते हुए कि उद्योग अपने साथ क्या ले कर आते हैं। हमारा ही अनुभव है कि बड़े उद्योगों ने हमारा पर्यावरण ( जल, वायु, ध्वनि ) कितना खराब किया है। आज हमारी सारी नदियां प्रदूषित हैं, नगर झुग्गी बस्तियों से पीड़ित हैं, धूल-धुंआ और सफाई की समस्या कहां नहीं है। किन्तु हम आज हम मजबूर हैं, और सब जानते हुए भी बड़े उद्योगों के लिए लाल कालीन बिछाना पड़ रही है। 
                            राजनीतिक दलों को बिना लाभ हानि सोचे इस वक्त जनसंख्या को लेकर एकमत होना चाहिए और अपनी पक्ष रखना चाहिए। दुःखद है कि दो बड़े दल अपने अपने कारणों से इस मुद्दे पर चुप लगाए रहते हैं। 1977 के कड़वे अनुभव के बाद कांग्रेस प्रायः जनसंख्या नियंत्रण पर मुखर नहीं होती है और इसके उलट भाजपा में ऐसे लोग हैं जो अनेक बार ज्यादा बच्चे पैदा करने का मशविरा दे चुके हैं। क्षेत्रीय दलों को तो लगता है कि ये उनकी समस्या ही नहीं है। जो बाहर हैं उनकी सारी मशक्कत सत्ता में आने की है और जहां सत्ता में हैं वहां अगली बार फिर सत्ता में बने रहने की जुगत चलती रहती है। कोई भी राज्य अपने यहां की जनसंख्या के प्रति चिंतित दिखाई नहीं देता है। अगर वोट न हों तो गरीबों की ओर वे देखें भी नहीं ( शायद )। भ्रष्टाचार हमारे यहां मुद्दा है लेकिन कुछ नहीं हुआ, वह बढ़ा ही है। मंहगाई मुद्दा होती है लेकिन बढ़ी ही है। इसी तरह बेराजगारी, अपराध, घोटाले, सांप्रदायिकता, जातिवाद, दबंगवाद, पर्यावरण, आवास वगैरह क्या नहीं है जिस पर चर्चा नहीं होती। लेकिन जनसंख्या को कोई छूता नहीं । 
                              जनसंख्या का मुद्दा अगर इसी तरह अछूत बना रहा तो देश  इस पर सोचना भूल जाएगा। माल्थस ने कहा है कि अगर मनुष्य जनसंख्या को लेकर सचेत नहीं होंगे तो प्रकृति को आपदाओं के माध्यम से यह काम करना पड़ेगा। आज हम जलसंकट, आवास, भीड़भाड़, अपराध, फसाद, आदि तमाम दिक्कतों से गुजर रहे हैं। कुछ औंधी सोच के लोग यह कहते भी सुने जाते हैं कि आगे किसी युद्ध के लिए उन्हें जनसंख्या की जरूरत पड़ेगी। मानो जनसंख्या उनके खेलने का सामान हो। अगर ऐसा नहीं होना चाहिए तो एक सौ बत्तीस करोड़ लोगों को जनसंख्या पर सोचना चाहिए। यह अनिवार्य है।
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Thursday, May 26, 2016

यदि मैं प्रस्तुतकर्ता नहीं होता तो कोई और होता ......


   
 
आलेख 
जवाहर चौधरी 


वरिष्ठ कवि कृष्णकांत निलोसे का चौथा कविता संग्रह ‘‘समय, शब्द और मैं !’’ शीघ्र प्रकाशित हो रहा है। पूर्वकथन में उन्होंने अपने को जिस तरह से व्यक्त किया, कविता और समय पर जो कहा  है वह मनन करने योग्य है। साहित्य प्रेमियों के लिए यहां प्रस्तुत है --

काल के विस्तार में समय का दृष्य
                              यदि कहा जाए कि ये कविताएं अभिव्यक्त होने के पूर्व भीअपने अस्तित्व में थीं, तो इसका तात्पर्य यही है कि कविता सर्वत्र तथा सर्वकालिक भाव में अपने में अंतर्निहित है। कवि तो मात्र  माध्यम है। समय के आगत और अनागत के बीच जो पुल बनता है, वह है शब्द। वह व्यक्त भी है और अव्यक्त भी। इसी पुल पर चलता काव्य-पुरूष अपनी आवाजाही करता है। मैं तो मात्र इन कविताओं का प्रस्तुतकर्ता हूं। यदि मैं प्रस्तुतकर्ता नहीं होता तो कोई और होता। लेकिन ये कविताएं अवतरित होतीं जरूर, क्योंकि ये कविताएं समय-शब्द और चेतना /काव्य-पुरूष /की कार्य-कारण अभिव्यक्ति है। वैसे तो इसे संयोग ही माना जाना चाहिए कि मैं इन कविताओं का कवि हूं। परंतु कोई भी संयोग निप्रयोजित या अनायास नहीं होता। काल के अखंड वृहत-विस्तार में समय एक दृष्य है और काव्य-पुरूष एक दृष्टा, जो भाषा या शब्द के माध्यम से अपनी चेतना को अभिव्यक्ति देता है। 
                          जहां एक ओर कविता में अलगाव नहीं होता, तो वहीं सम्पूर्ण लगाव भी नहीं। कविता भला किसको किससे जोड़ेगी ? काव्य-पुरूष को घटना से या अन्य मनुष्य से ? मनुष्य को प्रतिबिंब से, परछाई से ? समय को शब्द से, उच्चारण से ? किन्तु समस्त घटना संसार तो काव्य-पुरूष की आत्मा में ही होता है।
                       कविता, काव्य चेतना है जो केवल जोड़ती नहीं, वह अपने भीतर अभिषिक्त  करती हैं। अभिमान रहित, स्नेह से बुला लाती हैं, लिवा लाती हैं। जन्म-मृत्यु, हास्य-रुदन, आंसू-लहू को, हृदय के शतदल कमल पर आहूत कराती है। सदा आंदोलित, नित्स संघटित घटना को, अविच्छिन्न समय को, अनबोली व्यथा को, अव्यक्त अभिमान को, अबूझ दुःख को, असंपूर्ण उच्चारण को और अनुपलब्ध यंत्रणा को, अपनी सार्वभौम चेतना से अभिषिक्त करती है। 
                                            एक ओर काव्य-पुरुष की अंतरात्मा बिल्कुल निष्कम्प, निर्विकल्प है, वहीं दूसरी ओर, समय अग्नि-शिखा तथा धुंएं का केन्द्र बिन्दु है - अधीर, अस्थिर और आन्दोलित। वहीं जन्म लेती है कविता। बाहर के सारे दृष्य भीतर के अंधेरे में प्रखर ताप से तप्त होते रहते हैं। वहीं राह तलाशता रहता है, ढूंढता रहता है काव्य-पुरुष। इस संकलन की कविताएं निमंत्रण देती हैं: आओ ! एक बार देख लो समय का चेहरा शब्द के दर्पण में।
-- कृष्णकांत निलोसे

Wednesday, May 25, 2016

पाप हैं कि धुलते ही नहीं !!


आलेख 
जवाहर चौधरी 


हाल ही में सिंहस्थ का एक माह तक चला मेला समाप्त हुआ है. खबर कि  है करोड़ों लोगों ने उज्जैन की
पवित्र शिप्रा नदी में डुबकी लगाई और अपने अब तक किये पाप धोए. गीता में लिखा भी है कि काया वस्त्र कि तरह है जिसे आत्मा बदलती रहती है. यानी मृत्यु के बाद आत्मा नया शरीर ग्रहण कर लेती है. यह क्रम चलता रहता है जब तक कि मोक्ष न हो जाये. मोक्ष का सम्बन्ध कर्म फल से होता  है. मनुष्य जो करता है उसके हिसाब से पाप या पुण्य उसके खाते में जमा होते रहते हैं. रोजाना पूजा-पाठ, ब्रत-उपवास करते भक्त जन पाप का भार कम करते हैं और पुण्य का बढाते हैं. रहा-सहा पाप कुम्भ आदि में धो लिया जाता है. इस प्रकार आम भारतीय श्रद्धालु पूरी तरह पवित्र और अपने नित्य जीवन में सुख-शांति का अधिकारी भी है. यहाँ इस बस बात को नहीं भूलना है कि आस्थावानों में अधिक प्रतिशत गरीबों का है जो प्रायः अशिक्षित है, जिनके पास रहने-खाने कि समस्या है, जो शारीरिक रूप से इतने कमजोर और हीन हैं कि उनमें जीवन संघर्ष का उत्साह देखने को नहीं मिलता है. बीमारी की हालत में वे चिकित्सा की जगह चमत्कार की आशा करते हैं. इसीलिए बाबाओं के जाल में फंसते रहते हैं.
               अब सवाल यह है कि इतनी आस्था, इतनी भक्ति, इतनी श्रद्धा और विश्वास कि भगवान पत्थर का हो तो भी पिघल जाये तो यहाँ करोड़ों आस्थावान नारकीय जीवन क्यों जी रहे हैं ! कहते हैं कि पूर्व जन्म के पापों के कारण इस जन्म में आदमी को भुगतना पड़ता है ! तो फिर पूजा, परिक्रमा, स्नान, घ्यान आदि का क्या हुआ. अभी लेखक हरि जोशी कि एक किताब पढ़ी जिसमे उन्होंने अपने अमेरिका प्रवास के संस्मरण लिखे हैं. वहाँ का जीवन उन्मुक्त है. लोग पढ़े लिखे और परिश्रमी हैं, अच्छा खाते-पीते हैं और आमतौर पर सब सुखी हैं. हरि जोशी लिखते हैं कि आश्चर्य होता है कि यहाँ घर्मिकता उतनी नहीं है जितनी कि भारत में है, चर्च भी रोज नहीं जाते हैं, प्रार्थना में भी अधिक समय नहीं लगते हैं ! लेकिन आम अमेरिकी सुखी है, समृद्ध है, ऐसा क्यों आखिर !! इसपर सोचने कि जरुरत है.
             हर तीन वर्ष में कुम्भ का मेला होता है, हरिद्वार, नासिक, प्रयाग यानी इलाहबाद और उज्जैन में बारी बारी से. इसलिये एक स्थान का क्रम बारह वर्षों के बाद आता है. इनमें करोडो लोगों की भागीदारी होती है और सरकारें जनता के टेक्स का हजारों करोड़ रुपया इंतजाम में खर्च करतीं हैं. साल दो साल पहले से तैयारी में मानव श्रम लगाया जाता है. निसंदेह इसका लाभ भी होता है कि उस स्थान को कुछ नए निर्माण मिल जाते हैं, कुछ व्यवस्थाएं हो जाती हैं, लेकिन उनकी उम्र बहुत कम होती है और अगले कुम्भ तक वे बनी नहीं रहती हैं. इस तरह देश में प्रायः हर समय कहीं न कहीं कुम्भ मेले कि तैयारी चलती रहती है. इतना धन और मानव श्रम विकास की योजनाओं में लगे तो देश के लोग ज्यादा सुखी हो सकते हैं. सवाल सिर्फ आर्थिक नहीं है. इन मेलों से जनता को प्रेरणा किस बात की मिलती है !! भाग्यवादी और अकर्मण्य लोग अपने विश्वास को पकडे बैठे रहते हैं. साधू-संत उन्हें पाखंड के पाठ पढ़ा कर वापस सदियों पीछे धकेल देते हैं. समय के साथ कोई उन्हें बदलने की शिक्षा नहीं देता है. पिछले साठ वर्षों में बीस से अधिक कुम्भ हो चुके हैं, इस बीच दुनिया बदल चुकी है लेकिन हिंदू समाज की सामाजिक समस्याएं वहीं की वहीं हैं, बल्कि कुछ बढ़ी ही हैं. मै नहीं कहता कि कोई दिन ऐसा आएगा जब इस तरह के मेलों की प्रासंगिकता पर लोग प्रश्नचिन्ह लगाएंगे. जिन करोड़ों लोगों को सैकड़ों वर्षों से अंधविश्वासी बनाया जाता रहा हो, और अब सरकारें भी भक्त की तरह सहयोग में लगी पड़ी हो तो बदलाव की उम्मीद कम हो जाती है. लेकिन एक सवाल पर विचार करना ही चाहिए कि इस कवायद से हासिल क्या होता है. नई पीढ़ी से बहुत आशा है, इस तरह की बातों को शायद वही समझे.

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Tuesday, February 23, 2016

इतिहास के पन्नों पर आत्माओं का जिक्र !

            

आलेख 
जवाहर चौधरी 

पिछले जन्म में ईसाई रहा हो, आज मेरा शरीर हिंदू है, और अगली बार मुस्लिम के घर पैदा हुआ तो ! प्रश्न सामने आता है कि आस्थाएं शरीर की हैं या मेरी !? मैं शायद तब भी वही था जो इस जन्म में आज हूँ और आगे भी वही रहूँगा. आज जो शरीर हिंदू समर्थक है वो कल इसका विरुद्ध भी हो सकता है. गीता में कहा गया है कि जिस तरह हम वस्त्र बदलते हैं, आत्मा उसी तरह शरीर बदलती है. वस्त्र के साथ हम नहीं बदलते, इसी तरह शरीर बदलने से भी हम नहीं बदलते हैं. मुझे विश्वास है कि मैं वही हूँ, निरंतर वही. निष्ठाएं, मान्यताएं, पारस्परिक सम्बन्ध आदि सब मिले हुए शरीर के साथ हैं. यहाँ तक कि सुख-दुःख भी शरीर की अनुभूतियाँ हैं. शरीर से अलग होने का संज्ञान होने पर इन अनुभूतियों की प्रबलता कम हो जाती है. ऐसा मैंने अनेक बार अनुभव किया है. जब मैं अपने को भूल जाता हूँ तो शरीर हो जाता हूँ. तब शरीर की हर अनुभूति निर्बाध मुझ तक पहुंचती है. कई बार बुखार और अन्य शारीरिक पीडाओं के समय ऐसा लगता भी है. जीवन में अनेक उतर चढाव आते हैं, लेकिन वह सब शरीर और उसकी चेतना के हिस्से में आया भाग है. अनेक बार बड़े बूढों के मुंह से सुना है कि देह धरे का दंड है सो देह को भोगना ही पड़ेगा. और भोगती भी वही है.
शायद इसका कारण उम्र हो, अनचाहे ही इन दिनों बार बार यह प्रश्न कौंध रहा है कि मैं कौन हूँ. खासकर उस वक्त जब एकांत में होता हूँ.( उम्र के साथ एकांत के अवसर भी बढ़ रहे हैं ) कई बार यहाँ वहाँ पढा-सुना है कि हम वो नहीं हैं जिस पहचान के साथ अब तक जीते रहे हैं. भिन्न भूमिकाओं में हमारी भिन्न पहचान हैं पर वह पहचान शरीर की है, शरीर के साथ हैं. हालाँकि शरीर मेरा है और मैं उसका ध्यान भी रखता हूँ, उसे पसंद भी करता हूँ, उसमें अपनापन महसूस करता हूँ, ;लेकिन उससे आलग हूँ. जैसे एक बच्चा अपने खिलौने पर अपना स्वामित्व मानता है, उसे पसंद करता है, उसके साथ खेलता है. लेकिन उसका अस्तित्व खिलौने से अलग होता है. न वो खिलौने में है और न खिलौना उसमें है. 
 किन्तु ये भी तय है कि मुझे एक दिन अपना शरीर छोडना है जैसा कि हर किसी को छोडना है. उस शरीर को जिसने जाने अनजाने तमाम वो काम किये जिसमें मेरा सहयोग और सहमती नहीं थी. यानी मेरी इच्छा के विरुद्ध, कई बार मना करने के बाद भी. मैं बहुत सी बातों को नहीं मानता हूँ, लेकिन शरीर, जिस परिवार में, समाज में या जिस व्यवस्था में निरंतर बना हुआ है, समाज के सम्मान को रखने और स्वयं को बनाये रखने के लिए उसे बहुत कुछ ऊँचा-नीचा करना पड़ता है. मेरी सोच अलग है और बने रहने के लिए शरीर की जरुरत अलग. किसी बात पर मैं राजी भले ही नहीं हूँ पर शरीर को करना पड़ता है. दो अलग अलग इकाइयां हैं जो आपस में इस तरह से उलझी हुई हैं जिन्हें पृथक देखना कठिन है. शरीर को भूख लगती है तो वह मुझसे कुछ नहीं मांगता, व्यवस्था के अंतर्गत उसके जैसे दूसरे शरीर से मांगता है. मैं सब देखता हूँ किन्तु भौतिक जगत में मेरा हस्तक्षेप नहीं के बराबर है. फिर एक सवाल कि। ...... आप क्या हैं ? और क्यों हैं ?
आंगन में एक पिंजरा लटका है, उसमें  एक चिड़िया है. समझ में नहीं आता कि चिड़िया है इसलिए पिंजरा है या पिंजरा है इसलिए चिड़िया है ? लेकिन सच्चाई यह है कि पिंजरा और चिड़िया दोनों हैं. इनमें से एक भी नहीं हो तो दूसरा अप्रासंगिक हो जाये. पंछी है तो पिंजरे का अर्थ है और पिंजरा है तो पंछी है. मैं हूँ यह बात मुझे शरीर से जोड़ती है और जब जानना चाहता हूँ कि मैं कौन हूँ तो इसका सिरा अनंत की ओर मुड़ जाता है. वैज्ञानिक कहते हैं कि ब्रह्माण्ड में अनेक पृथ्वियाँ हैं, सैकड़ों की संख्या में. वहाँ जीवन है, म्रत्यु भी होगी ही. बहुत संभव है कि आत्माएं एक पृथ्वी से दूसरी पृथ्वी पर आती जाती रहती हों. फिर मेरा क्या है ? मेरे शरीर का क्या ? धन संपत्ति, नाते रिश्ते, लिया दिया, कुछ भी नहीं ! न विचार, न तर्क, न धर्म, न  वाद कोई. अगर इतना निरर्थक है जीवन, इतना  निष्प्रयोजन है शरीर, तो विचलन होता है. कृष्ण ने भी गीता में आत्मा की महिमा बताई है, शरीर को तो मरने-काटने और नष्ट करने योग्य, दूसरे शब्दों में अर्थहीन कहा है...... तब ?....... 
युद्ध तो शरीर को ही करना पड़ा. 
सुनिए, कोई कह रहा है ..... तुम आत्मा हो, आत्मा अमर होती है .... किन्तु इतिहास शरीर बनाते हैं, ... इतिहास  के पन्नों पर आत्माओं का जिक्र नहीं होता है .
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Thursday, July 30, 2015

टीवी के लिए आचार संहिता हो






आलेख 
जवाहर चौधरी 


इनदिनों घरों में  लोग अक्सर चिढ़ कर टीवी बंद कर देते हैं। उस दिन मैंनें भी बंद किया और रात तक चालू नहीं किया। पिछले तीन-चार दिनों से एक फांसी को लेकर हर चैनल पर इतनी घमासान मची थी जितनी शायद उस दिन भी नहीं मची जब 257 बेकसूर लोग घमाकों में मारे गए थे और सैकड़ों घायल हुए थे। एक लोकतांत्रिक देश  की बुनियाद में संविधान होता है। देश का हर नागरिक कानून के दायरे में है। हमारी न्याय व्यवस्था पर धीमें काम करने का आरोप अक्सर लगता रहा है। उक्त प्रसंग में भी देखें तो मामला 22 साल पुराना है। यह भी कहा जाता है कि कानून की तमाम गलियों के कारण कई बार अपराधी छूट भी जाते हैं। कानून स्वयं मानता है कि चाहे सौ अपराधी छूट जाएं पर एक बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिए।
                          इस सिद्धांत और विचार के प्रकाश में अपराधी को अपना बचाव करने के असीम अवसर हमारी न्याय व्यवस्था प्रदान करती है। ऐसे में अगर सर्वोच्च न्यायालय अपना काम कर रहा है तो टीवी चैनलों को अनावश्यक बहसें कर वातावरण को कलुषित करने की क्या जरूरत है ? नेता तो अपने राजनीतिक हितों को ध्यान में रख कर बयान देते हैं न कि सत्य, दे और नैतिकता के आधार पर बोलते हैं। जनता इस बात को समझती भी है और उनके बयानों की प्रायः खिल्ली उड़ाती है। किन्तु अफसोस टीवी चैनल इनसे अपनी रोटी या जिसे ये लोग कहते हैं टीआरपी सेंकती है। उन्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि टीआरपी से अंततः कौन जुड़ा हुआ है। टीवी के उनके दर्शक  ही टीआरपी हैं। दर्शक  मासूम ही सही पर टीवी के अन्नदाता हैं। टीवी को इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि खबरों को मिर्च-मसाला लगा कर इस तरह प्रस्तुत न करे जिससे किसी को भड़कने या भड़काने का मौका मिल जाए। जनता बड़े प्रयासों और धैर्य से सामाजिक सौहार्द का सृजन करती है।  यह बात और है कि स्थिति बिगड़ने पर खबरों के बाजार में नया बिकाऊ  माल आ जाता है। किन्तु चैनलों को टुच्ची व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा से बचना चाहिए। सरकार का भी दायित्व बनता है कि टीवी के लिए आचार संहिता का सख्ती से पालन करवाए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर खुल्ली छूट नहीं मिल जाना चाहिए। आखिर दे में फिल्मों के लिए भी सेंसर बोर्ड है, नियम कायदे हैं तो टीवी ‘नंदी’ बने बेलगाम  कैसे घूम सकते हैं। दंगों के समय दंगा-लाइव, घमाकों के समय घमाका-लाइव, द्वेष फैलाने वालों के साथ उकसाती बहसें-लाइव ! पश्चिम  वालों ने इसे इडियट बाक्स कहा लेकिन हमारे यहां यह अग्ली-बाक्स होता जा रहा है।
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Wednesday, June 17, 2015

वेलकम विनाश !

                 

आलेख 
जवाहर चौधरी 


मुझे याद है उन्नीस सौ सत्तर-इकहत्तर के दिन थे जब देश  में हमारी बढ़ रही जनसंख्या की चिंता सुर्खियों में आ गई थी। हालाॅकि उस समय जनसंख्या करीब सत्तवन करोड़ ही थी, लेकिन जनसंख्या की रफ्तार को समझ लिया गया था। पत्र-पत्रिकाओं में खूब लेख छप रहे थे। ‘जनसंख्या विस्फोट’ के खतरों पर बहसें थी और माल्थस आदि के हवाले से कहा जा रहा था कि अगर हमने अभी कुछ नहीं किया तो प्रकृति अपने तरीके से जनसंख्या नियंत्रित करेगी किन्तु वह भयानक होगा। विद्वान बता रहे थे कि आने वाले दशकों में हमें कितना अन्न, कपड़े, घर और रोजगार की जरूरत पड़ेगी। कितने स्कूल और अस्पताल चाहिए होंगे। यह भी बताया जा रहा था कि जनसंख्या अधिक हुई तो इंसानों को घोड़ों की तरह खड़े खड़े सोना पड़ेगा। कुछ अतिवादियों का मानना था कि जनसंख्या रोकी नहीं गई तो लोगों को नरमांस खाना पड़ सकता है। 
                         सौभाग्य से विज्ञान ने हमारा साथ दिया और आज जब देश की जनसंख्या सवा सौ करोड़ है और  हालात इतने बुरे नहीं हैं जितनी  की कल्पना की गई थी। अनेक कमियों के बावजूद देश मजबूत हुआ है, हमारा लोकतंत्र न केवल दुनिया का बड़ा लोकतंत्र है अपितु श्रेष्ठ भी है। अब तो यह भी मानना होगा कि जनता परिपक्व हो गई है और सरकार पर केवल विपक्ष ही नहीं वह भी निगाह रखती है। शिक्षा का प्रतिशत बढ़ा है, प्रतिव्यक्ति आय बढ़ी है, मीडिया की पहुंच आखरी आदमी तक बन गई है। लेकिन अफसोस तूफानी गति से बढ़ रही जनसंख्या को लेकर देशव्यापी सन्नाटा है।
1975-76 में जब जनसंख्या वृद्धि की चिंता चरम पर थी, संजय गांधी ने जनसंख्या नियंत्रण के नेक इरादों से कुछ कठोर कदम उठाए। परंपरावादी सोच के चलते लोगों ने इसे पूरी तरह स्वीकार नहीं किया। विरोध हुआ तो दबाव भी बनाया गया। अगले चुनाव में अन्य के साथ इस मुद्दे को भी विरोधियों ने भुना लिया। कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ा। किन्तु ज्यादा दुखःद यह है कि उसके बाद राजनीतिक दलों ने जनसंख्या नियंत्रण का नाम लेना भी बंद कर दिया। डर ने एक जरूरी सरकारी नीति को नितांत स्वैच्छिक बना दिया। उस पर आश्चर्यजनक यह कि कुछ सिरफिरे-मूढ़ नेताओं ने आठ-दस बच्चे पैदा करने के लिए उकसाना शुरू कर दिया ! 
                      आज हर बात की चिंता है, हर छोटे-बड़े मामले पर घरने प्रदर्शन  हैं। कई कई महात्मा गांधी पैदा होने की कोशिश  में हैं और दिल्ली में मैदान पकड़ने की फिराक में रहते हैं। लेकिन जनसंख्या को लेकर कोई कुछ नहीं बोल रहा है। वैज्ञानिक बता रहे हैं कि भारत 2030 में 145 करोड़ के साथ दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन जाएगा, यानी चीन से भी आगे। 2050 में भारत की जनसंख्या 160 करोड़ के आसपास होगी। अभी 125 करोड़ में दुनिया का हर छटवा आदमी हिन्दुस्तानी है। आप देख सकते हैं कि हर जगह भीड़ है। बाजार हों, रेल्वे स्टेशन हो, सड़क हो, होटल-रेस्त्रां हों, स्कूल-कालेज हों, हर जगह भीड़ ही भीड है। यात्रा करना अब नरक भोगने के बराबर है। चिंता होती है कि हम अपने बच्चों के लिए कैसी दुनिया छोड़ कर जा रहे हैं !! 1947 में जब हम आजाद हुए थे तो मात्र पैंतीस करोड़ थे। इस बात को हर कोई भूल चुका है ऐसा लगता है। चीन ने अपनी जनसंख्या के लिए जरूरी कदम उठाए और एक बच्चे की नीति लागू की। आज उसकी वुद्धि नियंत्रण में है। जब हम जनसंख्या बढ़ाने में लगे थे चीन ने अपना ध्यान ताकत बढ़ाने तें लगाया। आज वह अमेरिका के बाद दूसरी महाशक्ति है। हमारे सभी राजनीतिक दलों को देश हित में एक सामूहिक निर्णय ले कर जनसंख्या नियंत्रण की पुख्ता नीति बनाना होगी। यदि शीघ्र ऐसा नहीं हुआ तो हमारी जनसंख्या को बड़े विनाश के लिए तैयार रहना होगा। 

Saturday, March 14, 2015

ठहराव के खिलाफ जिंदगी

                      

आलेख 
जवाहर चौधरी 

  आज की भागती जिन्दगी ने हर तरह के ठहराव को नकार दिया लगता है। परिवार को ही लीजिए, इस समय लाखों की संख्या में तलाक के प्रकरण कोर्ट में लंबित हैं और प्रतिदिन सैकड़ों नए प्रकरणों की भूमिका तैयार हो रही है। मुंबई, दिल्ली या बैंगलोर के आंकडे सुर्खियों में दिखाई दे जाते हैं लेकिन छोटी जगहों में भी पारिवारिक तनाव हर चौथे घर में जगह बना चुका दीखता है। जहां तलाक का सब्र और समझ नहीं हैं वहां आत्महत्या और हत्या तक हो रही हैं। हाल ही में दिल्ली के एक इंजीनियर पर पत्नी को क्रिकेट के बैट से पीट कर मार डालने की खबर चौंका रही है। छोटे शहर में भी पारिवारिक तनाव/विवाद के चलते आत्महत्या की खबरें प्रायः छपती रहती हैं। यह अच्छा है कि स्त्रियों में शिक्षा, सामर्थ्य  और चेतना बढ़ी है, इसके साथ ही उनकी अपेक्षाएं और साहस भी बढ़ा है। इस विषय पर कारण आदि पर जाने से विस्तार अलग हो जाएगा। दरअसल इस पृष्ठभूमि पर मुझे एक बहुत पुरानी घटना याद आ रही है।
                लगभग पैंतालीस साल पहले का वाकया है, हमारे एक साथी रामेन की शादी होना तय हुआ। उन दिनों लड़की देखने या लड़के से पूछने का रिवाज नहीं था। बड़े अपने हिसाब से देखभाल कर सब तय कर लिया करते थे। लड़कों की हिम्मत नहीं कि कोई सवाल कर लें। खेती करने वाले परंपरावादी कृषक संयुक्त परिवार, और हर घर में सामंती रवैया। ऐसे में रामेन को पता चला कि जिस लड़की से उसका विवाह होने जा रहा है वह सांवली और लंगड़ी है। उस जमाने में इधर लड़कियों के पढ़ेलिखे होने का तो सवाल ही नहीं था। खुद रामेन किसी तरह दसवीं कक्षा तक पहुंचा था। रामेन की हिम्मत नहीं कि अपने पिता से या अपने घर में किसी से इस विषय में कुछ कह पाए। मैं दूसरे परिवार का, चौधरी पुत्र। हमारा बीज यानी सीड्स का व्यापार भी था। रामेन के पिता प्रायः हमारे प्रतिष्ठान पर बैठते थे सो मेरा उनसे राफ्ता था। रामेन मुझसे सालेक भर छोटा है। इस दृष्टि से मैं भी उसके पिता का सामना करने का अधिकार तो नहीं ही रखता था। लेकिन बात जब कहीं बन नहीं पा रही हो तो साहस किया। कहा कि रामेन लंगडी लड़की से विवाह नहीं करना चाहता है। सुन कर वे गंभीर हो गए। बोले- अगर लड़की विवाह के बाद लंगड़ी होती तो क्या हम या रामेन उसे निकाल देते ? मैंने कहा वो बात अलग होती। लेकिन अभी तो ......। 
                        वे बोले -‘‘ अगर कहीं रामेन लंगडा होता तो क्या उसका विवाह नहीं हो पाता ? कोई न कोई लड़की तो उसे पति बनाती ही ना ?
                         इस बात का कोई जवाब नहीं दे पाया मैं। उन्होंने साफ किया कि - ‘‘ शादी -ब्याह दो परिवारों का संबंध है, बच्चे उसमें निमित्त मात्र होते हैं। रिश्तेदारी  में खानदान देखा जाता है। लड़की लंगडी सही पर उसके बच्चे अच्छे होंगे। परिवार को और क्या चाहिए। ...... और अब हमने जुबान दे दी है। बात अटल है और उससे पीछे हटना कतई संभव नहीं है। ’’
                         रामेन की नहीं चली। हम विवाह में शामिल हुए। उस जमाने में वैसे भी पत्नी को ले कर घूमने का रिवाज नहीं था। विवाह होते ही सारी समस्याएं भी समाप्त हुई मान ली गईं। जीवन की चक्की प्रेम से चल पड़ी। एक पैर का दोष  कहीं बाधा नहीं बना और वे जीवन का पहाड़ लांध गए। 
                       हाल ही में रामेन के बेटे के विवाह का निमंत्रण मिला तो गुजरा हुआ सामने आ गया। लड़की ठीक है लेकिन गरीब घर की है। रोमन बोला- ‘‘ अंग की पूरी है और यही हमारे लिए बड़ी बात है। बच्चे खुश  रहें और क्या चाहिए। लगा उसने पैतालीस साल पुरानी कमी को आज सुधार लिया है। लेकिन तलाक कोई विचार न पहले कहीं था और पक्के तौर पर आगे भी नहीं होगा। पारिवारिक गरिमा की वैसी मिसाल शायद अब तो पिछड़ापन ही माना जाएगा। 
                                                                                   -----

Monday, September 8, 2014

आईने में भ्रम

                            

आलेख 
जवाहर चौधरी 


यों तो बुढ़ापा काफी समय से मुझे आंखें दिखा रहा था लेकिन मैं  खिजाब की ढ़ाल बना कर ढीठ बना रहा । मैं किसी तरह मानने को तैयार ही नहीं कि रवायत के तौर पर ही सही, उसे आना है और वह आएगा ही। आखिर एक दिन मैं  ‘अभी तो मैं जवान हूं’ सोचते हुए, अनचाहे रिटायर हो गया  और सिर कटे घड़ की तरह घर लौट रहा था।  बुढ़ापा मेरे आगे आगे, बिना इजाजत, पूरी बदतमीजी से मुझे  ठेलते हुए घर में मुझसे पहले घुस आया और पूरे कमीनेपन से बोला, -‘‘अब कहां जाओगे बच्चू, अब इस जहां में मैं हूं और तुम हो, ध्यान रखो तुम्हें मेरे साथ ही बचा समय गुजारना होगा !’’ 
                    अपने बुढ़ापे को मैं  किसी भी सूरत में और किसी भी कीमत पर नहीं देखना चाहता था । जोर का गुस्सा आया मुझे , इच्छा हुई कि उठा कर पटक मारूं  बुढ़ापे को। इतनी ताकत तो छोड़ी है नौकरी कराने वालों ने मुझ में। अभी तमतमा कर सोच ही रहा  था कि वह फिर बोला- ‘‘ गुस्सा मत करना प्यारे, ब्लडप्रेशर एक्सप्रेस ट्रेन  सा छूट जाएगा। लोग कहेंगे कि कमजोर था रिटायरमेंट बरदश्त  नहीं हुआ। .... तीन दिन बाद दुनिया सबको भूल जाती है।’’
               ‘‘आखिर चाहते क्या हो तुम !?’’ मैनें  हथियार डाले।
                ‘‘ यही कि मैं तुम्हारा बुढ़ापा हूं मुझसे डरो मत। मेरा आदर करो, थोड़ी समझ से काम लो तो मुझ पर गर्व भी कर सकते हो। तुम खुद जिन्दगी भर इस चिंता में रहे हो कि बुढ़ापा बिगड़े नहीं। आज जब मैं सामने हूं तो नजरें चुरा रहे हो ! सोचो अगर मैं बिगड़ गया तो क्या तुम मुझसे जीत जाओगे ?’’ वह बोला।
               ‘‘ तो तुम्हीं बताओ अब मैं क्या करूं ? टिप्स दो कुछ ।’’ मैं  शांत हुआ ।
                  ‘‘ सबसे पहले आंखें बंद रखना सीखो। दुनिया को कम से कम देखो। अपने भीतर झांको, जो कि आज तक तुमने नहीं किया है। सुखी रहना है तो भीतर देखो, मन की आंखें खोलो। ’’ पहला लेसन मिला।
                 लेकिन मैं  नहीं माना , बोला -‘‘ ये कैसे हो सकता है महाराज !! जीवन भर का अनुभव है मेरे पास। ज्ञान बांटना अब मेरा विशेषाधिकार है। लोगों को सिखाने के लिए मैंने तो कमर कस रखी है।’’
                  ‘‘ तुम ज्ञानी हो इस बात का प्रमाण क्या है ?’’ उसने पूछा।
                   ‘‘ रिटायर आदमी को प्रमाण की अलग से क्या जरूरत है !? ’’ 
                   ‘‘ तुम आईना देखते होगे, .... क्या दिखता है तुम्हें ? एक बूढ़ा आदमी ?’’
                   ‘‘ मैं क्यों बूढ़ा दिखूं ... मैं नहीं हूं बूढ़-उढ़ा ।’’
                  ‘‘ जब कोई बूढ़ा आईना देखे और उसे बूढ़ा ही दिखाई दे तो समझो कि वो ज्ञानी है। वरना वह भ्रमित है। भ्रम और ज्ञान दोनों एक साथ कैसे रह सकते हैं श्रीमान ? दूसरों को भी भ्रमित करने का काम मत करो।’’
                    बात समझ में आई। और भी गूढ बातें जानना चाहता हूँ  इसलिए बैठे बैठे बातें करते रहता  हूँ । .... लोग समझ रहे हैं … शायद पागल । 
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Wednesday, April 30, 2014

दुःख का जनक विकास !



आलेख 
जवाहर चौधरी 


लगता है तकनीकी विकास और तेज रफ्तार जिन्दगी ने समाज को दो भागों में बांट दिया है। एक वे हैं जो भौंचक से पचास पार की उम्र जी रहे हैं और दूसरी है हमारी नई पीढ़ी, जिसके मूल्य और आदर्श अभी भी किसी परिभाषा की प्रतीक्षा में हैं। वे धरती पर आ गए हैं और एक मुक्त उपभोक्ता की तरह मौजूद हैं। उन्हें किसी तरह की बंदिश सहन नहीं है, न घर-परिवार की, न परंपराओं की और न ही नैतिकता-वैतिकता की। चमत्कारों से भरे संसार में उन्हें जन्म मिला है तो वे किसी की परवाह किए बगैर भरपूर जी लेना चाहते हैं। बाजार उन्हें बताता है कि ‘असली जिन्दगी’ क्या करने में है। उनके पास क्या होना चाहिए, पचास हजार का स्मार्ट फोन और लाख रुपए की बाइक तो बनती है। उन्हें क्या पीना और खाना जरूरी है, नाइट क्लबों, होटलों, जुआघरों, रेव पार्टियों आदि में असली मजा मिलता है। इस सब के लिए पैसा चाहिए तो मां-बाप एटीएम की तरह मौजूद हैं। उन्हें पता है कि मां की नाक दबाने से बाप का मुंह खुलता है, या इसका उल्टा भी। शुरू में संतान-प्रेम के कारण उनकी जेबें खुलती है और बाद में अनेक दबाव यह काम करवाते हैं। बच्चे चाहते हैं कि पैसा देते वक्त मां-बाप उनसे कोई कारण न पूछें। वे मान कर चलते हैं कि जो भी कमा कर रखा गया है वह सिर्फ उनके लिए है। जैसे बैंक नहीं पूछती कि आप पैसा ले जा कर क्या करोगे वैसे ही घर के लोगों को भी नहीं पूछना चाहिए। इधर पैसा पैसा जोड़ कर जो इकट्ठा किया था वह फिजूल खर्च होता देख आखिर बुजुर्गों की हिम्मत जवाब देने लगती है। हारते हुए आखिर एक दिन वे उस डर की परवाह भी छोड़ देते कि ‘बेटा कुछ ऐसा-वैसा न कर ले’ और हाथ उंचे कर देते हैं। ऐसी स्थिति में खबरें अलग ढंग से सामने आती हैं। किसी भी बड़े अखबार में देख लीजिए, प्रतिदिन दस से बारह जाहिर सूचना के विज्ञापन मिलेंगे जिसमें माता-पिता अपने बेटे-बहु को अपनी संपत्ती से बेदखल कर रहे हैं। कारण भी साफ लिखा है कि उनका चाल चलन ठीक नहीं हैं। वे कहना नहीं सुनते हैं और उनके साथ दुर्व्यवहार करते हैं। यह भी कि उनसे किये गये किसी भी व्यवहार, विशेषकर आर्थिक, के लिए वे उत्तरदायी नहीं होंगे। जहां एक से अधिक पुत्र हैं वहां संपत्ती के बटवारे को ले कर खूनी संधर्ष भी हो जाते हैं। कुछ घटनाएं ऐसी हुई हैं कि बंटवारे में हुए किसी पक्षपात को लेकर पुत्रों ने पिता को पीट पीट कर बैकुण्ठ भी पहुंचाया है। मां-बाप को घर से बाहर कर देने की खबरें अब चौंकाती नहीं हैं। वो तो सचमुच ही सपूत हैं जो अपने बूढ़ों को ‘आदर पूर्वक’ वृद्धाश्रम में छोड़ देते हैं। सोचने में आता है कि सभ्यता के किस मुकाम पर पहुंच गए हैं हम ! घर में एक या दो बच्चों का चलन इसलिए अपनाया गया कि उनको काबिल बनाया जा सके। यह देखना होगा कि हमारी सामाजिक व्यवस्था में और हमारी शिक्षा पदृति में कौन सी कमियां है जहां निर्माण की बुनियाद विखण्डन पर रखी जा रही है। यदि बाजार बुद्धि भ्रष्ट कर रहा है तो उसे रोकना होगा। तकनीकी विकास यदि संबंधों रौंद रहा है तो उस पर नियंत्रण जरूरी है। यदि यह विकास है तो इसे दुःख का जनक क्यों होना चाहिए ! ----

Wednesday, March 19, 2014

आखिर कौन है कार्यकर्ता !

             
 
आलेख 
जवाहर चौधरी 


 कहते हैं श्वान एक वफादार प्राणी है तो इस वाक्य में श्वान  के प्रति वफा से पैदा हुई वो इज्जत होती है जो अब शायद सब इंसानों या यों ही कहें कि राजनीति क्षेत्र के लोगों को नसीब नहीं है। सफाई में हमें यह भी सुनने को मिल सकता हैं कि "कुछ  तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता।" चाहे राजनीतिक ही क्यों न हो, विचारधारा एक संस्कार की तरह होती है, जो हवा के झोंकों के साथ बदलती नहीं रह सकती है, चाहे सही हो या गलत। संसार में पूर्ण सही या पूर्ण गलत को लेकर विद्वान माथाफोड़ी करते रहे हैं किन्तु नतीजा शून्य ही रहता आया है। ऐसे कई हैं जो स्वयं को दल के प्रति निष्ठावान घोषित करते चले आ रहे थे, अचानक उस ओर चल देते हैं जिसकी घोर निंदा करते रहे हैं। किस लिए भई !! आज ऐसा क्या हो गया आखिर कि विचारधारा ही बदल गई ! उस पर ताज्जुब यह कि वे अपने कार्यकर्ताओं के साथ दल बदलते हैं ! ये कार्यकर्ता कौन होते हैं ? क्या वे रोबोट की तरह होते हैं ? उनमें बुद्धि नहीं होती ! या फिर वे खरीदे गुलाम होते हैं ! वे सोचते विचारते नहीं हैं क्या ? दल से संबंधित संस्कार या विचारधारा का उनसे कोई नाता नहीं होता है!? कहने को ग्रासरूट पर कार्यकर्ता ही काम करता है, तो सवाल ये है कि वो स्वैच्छा से करता है या दल का दैनिक भुगतान वाला मजदूर है ? वो अपने नेता का बंधुवा मजदूर है ? यदि है तो उसमें और जमींदार के मजदूरों में कोई फर्क है ? मालिक ने निष्ठा बदली और सारा अमला दूसरी तरफ काम करने लगा !! लोकतंत्र के यज्ञ में कार्यकर्ता सबसे अहम इकाई है, तो वह कहीं भी हांकी जाने वाली भेड़ों की रेहड से अलग क्यों नहीं है, अगर नेता के प्रति कार्यकर्ता का निष्ठावान होना जरूरी है तो नेता के लिए निष्ठागत स्वतंत्रता क्यों ?  दलबदल के इस मौसम में मूर्ख बन रहा कार्यकर्ता जान रहा है कि उसका आका किसी सौदे के तहत बिक रहा है ! अगर उसका कोई ईमान नहीं है तो कार्यकर्ता उसके प्रति क्यों ईमानदार रहे ! अवसर छोटे ही सही, छोटों के पास भी आते हैं। बड़ा बड़े प्रस्ताव पर बिकता है तो छोटा छोटे प्रस्ताव पर क्यों नहीं बिके ! बड़ा अपनी बेईमानी को राजनीति कहता है तो छोटे के लिए यह अलग कैसे ? सच्चाई यह है कि कार्यकर्ता दो तरह का होता है। एक. जो अपने लिए राजनीति में जगह तलाश रहा हो। ऐसे लोग प्रायः संपन्न और प्रभावी प्रष्ठभूमि से आते हैं, इन्हें सत्ता की चाह होती है अपने धन की रक्षा और वृद्धि के लिए। दूसरे. वे होते हैं जो कटी पतंग की तरह होते हैं और उसके हो जाते हैं जो उनकी डोर पकड़ ले। एक मौका होता है भियाजी की नजरों में चढ़ने का। महीना.डेढ़ महीना भियाजी का काम कर लिया तो बाद में भिया थाने से छुडवाने, जमानत करवाने या पुलिस को फोन करने के काम आते रहेंगे। इन्हें मतलब नहीं कि भियाजी किस पत्तल में खा रहे हैं और किस में छेद करके उठे हैं। यह पूरी तरह से स्थानीय मामला है और पारस्परिक लेन.देन पर टिका हुआ है। तो सवाल वहीं का वहीं रह जाता है कि दलों के पास असली कार्यकर्ता कहां है ? यदि नहीं है तो क्यों नहीं है ? फिर दल  कैसा !? और किसका !?
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Tuesday, August 20, 2013

कैसी रक्षा .... कैसा बंधन


आलेख 
जवाहर चौधरी 


त्योहार अब तमाम आर्थिक-राजनीतिक अवसर बन कर सामने आते हैं। पैसे और टोपियों की परिक्रमा कर रहा हमारा समाज त्योहारों के सांस्कृतिक सरोकारों से दूर होता जा रहा  है। त्योहार के मौके पर छलक आए जन-उल्लास को बाज़ार अपनी सेल में समेट लेने के लिए गलाकाट प्रयास करता है। अब तो लोग भी त्योहारों के सांस्कृतिक-पारंपरिक स्वरूप को भूलते जा रहे हैं और बाजार द्वारा चढ़ाए रंग में अपने को रंगने लगे हैं। नई पीढ़ी खरीदारी से ही त्योहार मानाती दिखाई देती हैं। सात दिनों तक देश रक्षाबंधन का त्योहार मना रहा है, बहनें अपने भाइयों की कलाई पर प्रेम का रक्षा-सूत्र बांध कर भाई के लिए सक्षम व समर्थ बनने की मंगलकामना कर रही हैं। आतताईयों वाला एक दौर ऐसा भी गुजरा है जब समाज में सामान्य रूप से स्त्रियां सुरक्षित नहीं थीं, हालाँकि आज भी स्थितियां बहुत बेहतर नहीं है। वो सुरक्षा कारण ही थे कि मां-बाप अपनी बेटी को संयुक्त परिवार में ब्याहना चाहते थे जहां दामाद के साथ उसके कई भाई भी हों। इकलौते पुत्र वाले छोटे परिवार प्रायः उपेक्षित रहते रहे हैं। आज लोकतंत्र है और सुरक्षा का भार सरकार तथा पुलिस जैसी सरकारी एजेन्सियों के पास है। कहा जा सकता है कि कुछ हद तक कानून ने भाई की जिम्मेदारी ले ली है। जमाना बदल गया है, अब भैंस उसकी नहीं है जिसके पास लाठी है। लोकतंत्र हमें आश्वस्त करता है जंगल राज अब खत्म हो चुका है, अवशेष भले ही बाकी हों।
किन्तु प्रश्न यह बना रह जाता है कि क्या हमारी बहनों को व्यवस्था पूरी सुरक्षा दे पाई है!? बलात्कार की घटनाएं जिस तेजी से हो रही हैं वो आहत करने वाली है। मूल्यों का पतन इस हद तक हो गया है कि जिन पर बच्चियों की रक्षा का उत्तरदायित्व है वही अस्मत लूटने वाले साबित हो रहे हैं!! गैंग-रेप का समाचार हर दूसरे-तीसरे दिन की खबर बन रहा है! दिल्ली में गतवर्ष दामिनी के साथ घटित होने के बाद जनता ने तीव्र विरोध दर्ज कराया लेकिन कुछ हांसिल नहीं हुआ। खबर है कि अपराधों के चलते लड़कियां  दिल्ली में अपने को बहुत असुरक्षित समझ रही हैं, यहां तक कि कई ने नौकरी छोड़ कर अपने परिवार में लौट जाना बेहतर समझा। जिम्मेदार लोग भरोसा दे रहे हैं लेकिन कोई विश्वास नहीं कर पा रहा है। जिन्हें आदर्श होना चाहिए वो यौनशोषण के लिए सुर्खियों में दिखाई दे रहे हैं!! किसी के पास वो भरोसा नहीं है जो एक बहन को भाई से प्राप्त होता है। भरोसे की आस में नेता कभी मामा बनते हैं कभी भाई लेकिन मात्र औपचारिक हो कर रह जाते है, वाजिब असर नहीं होता है। बहन के लिए भाई का स्थान बहुत अहम् होता है, उसकी जगह कोई नहीं ले सकता है। और इसीलिए आज भी रक्षाबंधन का यह त्योहार अपना वास्तविक महत्व कायम रखे हुए है।
रक्षाबंधन के दिन ऐसी तमाम बहनें हैं जिनके भाई नहीं हैं, यानी जो माँ-बाप  की भाईविहीन संतानें हैं। कुछ ऐसी भी हैं जिनके भाई अब दुनिया में नहीं हैं। इनके लिए यह त्योहार दुःख और पीड़ा के साथ आता है। जिस समाज में भाई एक सहारा ही नहीं सुरक्षा देने वाला भी माना जाता हो वहां यह बहनें अपने को कितना अकेला और भीगा हुआ महसूस करती हैं, इसे समझना बहुत कठिन है। इसके विपरीत ऐसे भाई भी हैं जिनकी बहनें नहीं हैं या जो अब संसार से चली गई हैं, वे भी इस त्योहार को अंदर से पसीजते हुए देखते हैं। जब हम अपनी कलाइयों पर रंगबिरंगे रक्षासूत्र देखें तो उन तमाम बहनों और भाइयों को भी याद करें जो आज उदास मन से टीवी या किताब खोले अपने को बहला रहे होंगे।