Tuesday, March 6, 2018

कुमार अम्बुज की कविता

   जिसे ढहाया न जा सका











#जिसे##ढहाया##नहीं##जा##सका#

तुम मूर्ति ढहाते हो और इस तरह याद करते हो
                                        कि वह जीवित है

जिसे तुमने सचमुच मार ही दिया था
वह अब भी मुस्कराता है तुम्हारे सामने की दीवार पर
तुम्हारे छापेखाने उसीकी तस्वीर छापते हैं
तुम दूसरे द्वीप में भी जाते हो तो लोग तुमसे पहले
उसकी कुशलता के बारे में पूछते हैं
                                     तब तुम्हें भी लगता है
कि दरअसल तुम मर चुके हो और वह जिंदा है
बुदबुदाते हुए हो सकता है तुम मन में गाली देते हो
लेकिन हाथ जोड़कर फूल चढ़ाते हो
                                  और फोटू खिंचाते हो
तुम शपथ लेते हो वह सामने हाथ उठाये मुसकराता  है
तुम झूठ बोलते हो वह तुम्हारे आड़े आ जाता है
घोषणापत्र में तुम विवश उसीकी बातें दोहराते हो

मूर्ति ढहाने से सिर्फ मूर्ति ढहती है
और बचे रहते हैं सारे शब्द, स्मृति, आवाज,
            उन्हीं चौराहों पर तने खड़े रहते हैं विचार

फिर सारे सवाल मूर्ति के बारे में होने लगते हैं
बार-बार तस्वीरें दिखाई जाती हैं उसी मूर्ति की
उस जगह पर इकट्ठा होने लगते हैं तमाम पर्यटक
जिन्हें बताया जाता है कि यहाँ, यहीं, हाँ, इसी जगह,
वह मूर्ति थी।
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