Tuesday, March 27, 2018

मीडिया मांगे मोर

आलेख 
जवाहर चौधरी 

टीवी चैनलों पर सफलतापूर्वक गरमागरम खबरों का स्टाल लगा चुकने के बाद नयी खबर की तलाश में पाँच मीडिया मेन जंगल से गुजर रहे थे. वे जानते हैं कि जंगल सिर्फ गुजरने के लिए होता है. दिल्ली में रहने के लिए रुकना हो तो जंगल से गुजरना पड़ता है. जंगल दिल्ली के भरोसे है. मीडिया जंगल को दिल्ली से और दिल्ली को जंगल से डराता है. दिल्ली में मीडिया जंगल का टायगर है और जंगल में दिल्ली वाला शौकीन शिकारी. यही कारण है कि दिल्ली और जंगल दोनों मीडिया से डरते हैं. मीडिया जंगल से मुद्दों की शहद लेता है और दिल्ली से सबसिडी वाली दारू. दिन की शरुआत के लिए शहद और समापन के लिए दारू जरूरी है.
हाँ, तो किस्सा ये है कि पाँच मीडिया मेन जंगल से गुजर रहे थे. पाँच में से चार अलग अलग फन में माहिर हैं. चारों के पास एक से बढ़कर एक हुनर हैं. एक तिल को ताड़ बना देने में सिद्धहस्त है, दूसरा लोटे में हाथी घुसा देने में उस्ताद. तीसरा बातों-बातों में पानी में आगआग लगा सकता है तो चौथा मुर्दे से बयान लिखवा लेता है. पाँचवा जूनियर है सीख रहा है. फिलहाल खबरों को चीख-चीख कर बेचने का अभ्यास कर रहा है. नाम है साहित्य कुमार .
आप लोग चौंकिए  मत. पापी पेट के लिए और दिल्ली में बने रहने के लिए कुछ न कुछ यानी सबकुछ सभी को करना पड़ता है. दिन चढ़ा, जंगल थमने सा लगा, पंछी पेड़ों  पर बैठ गये, जानवर झाड़ियों में फैल गये. जैसा कि पहले से ही तय था ये पाँचों भी विश्राम करने लगे. विश्राम करने का मतलब कहीं बैठ जाना या लेट जाना भर नहीं है. यहाँ विश्राम का मतलब बियर की बोतलें गटकना है.
”यहाँ जंगल में पीने के पानी की कमी है.“ पहले ने बीयर की दूसरी बोतल खोलते हुए कहा.
”हाँ, मैं इस पर एक स्टोरी कर रहा हूँ ‘जल बिन जंगल“. दूसरे ने जवाब दिया. ”पेड़ों पर फल नहीं दिख रहे हैं... जरूर यहाँ बंदर हैं.“ तीसरा बोला. 
”तुम इस पर कुछ मत करना, मैंने रिपोर्ट तैयार कर ली हैµ‘लंगूर खा गए अंगूर.“ चौथे  ने चेतावनी दी.
”कोई बंदर फल खाते दिखा आपको.“ साहित्य कुमार  यानी जूनियर ने पूछा.
”बस... बंदर ही नहीं दिखा...“
”जब बंदर ही नहीं दिखा तो कैसे कहोगे कि फल उसने खाये हैं.“ 
”तुम अभी जूनियर हो यार, थोड़ा सीखो, समझो. देखे तो हमने साँप हैं लेकिन फल साँप ने तो खाये नहीं होंगे.
”ठीक है, लेकिन बंदरों ने खाये हैं  ये कैसे कहा जा सकता है.“ जूनियर को समझ में नहीं आया.
”क्या तुम जानते हो कि बंदर फल खाते हैं.“
”हाँ खाते हैं.“
”दुनिया भी यही जानती है?“
”हाँ.“
”पेड़ों पर फल नहीं हैं, बंदर फल खाते हैं,...,. चलो इसके आगे का वाक्य बनाओ.“
”इसके आगे... भूखे बंदर चले गये जंगल छोड़कर.“ जूनियर ने वाक्य पूरा किया. 
”एई!! तेरे को बंदर तनख्वाह देता है क्या .“
”नहीं.“
”तो?, तनख्वाह दिल्ली से और तरफदारी जंगल की. ये कैसे हो सकता है?“
”फल नहीं है. पानी नहीं है... छोड़ो यार इन बकवासों को.“ पहले ने हस्तक्षेप किया.
”एक बात नोट की? यहाँ कितनी शांति है.“ जूनियर ने भी बात बदली.
”शांति खबर नहीं होती. शांति मीडिया के लिए जहर है.“ दूसरा सीनियर बोला. 
”लेकिन शांति जंगल की सच्चाई है.“
”तो ये भी सच्चाई है कि इस देश में शांति के प्रायोजक नहीं मिलते हैं,... और हम दिल्ली और जंगल से ज्यादा प्रायोजकों के प्रति जिम्मेदार हैं.“
”हाँ, प्रायोजकों को खबर चाहिए. खबर नहीं हो तो खबर पैदा करना हमारा पहला काम है. खबरें हमारी रोजी-रोटी हैं.“ दूसरे सीनियर ने समर्थन करते हुए आँख मारी.
”नहीं यार, प्रायोजकों को बिकाउ खबरें चाहिए. हमारा महत्वपूर्ण काम है खबरों को बिकाऊ बनाना.“ तीसरे ने कहा.
”अहा. कितनी शांति है जंगल में... यहाँ कोई खबर नहीं है.“ जूनियर आँख बंद करते हुए कहा.
”क्या कहा. तुम व्यंग्य कस रहे हो हम पर? अपने प्रोफेशन पर?...तुम साहित्य  मेन हो. मीडिया मेन बनने कैसे चले आये. मिस फिट कहीं के.“ साथी नाराज हुए. 
”व्यंग्य नहीं है. सचमुच... कितना आनंद है. कितना सुखद है! अहा!“
”बी .... अ   प्रोफशनल. शांति का आनंद लेने से कुछ नहीं मिलेगा, हमें खबर चाहिए.“
”मुझे नहीं लगता कि इस शांति में हमें कोई खबर मिल सकेगी.“ जूनियर अपने आनंद से बाहर आने के लिए तैयार नहीं हुआ.
”अगर इस जंगल में हमें एक लाश मिल जाये तो बढ़िया कलेक्शन देने वाली बिकाऊ खबर मिल सकती है.“ सीनियर ने संभावना के साथ अपने साथियों को देखा. साथियों ने संभावना तवज्जोह दी.
टीवी पर पहला  दिन/दिनभर
‘जूनियर की गई जान’
”जी सीनियर, आप हमारे दर्शकों को बताएं कि उस रात क्या हुआ था जंगल में. वह ब्योरा दें जिसमें हमारे साथी साहित्य को जान से हाथ धोना पड़ा.“
”उस दिन हम जंगल से गुजर रहे थे, भटकते हुए रात हो गयी... अंधेरा हो गया... तब... फिर... चूंकि... किन्तु... अचानक... चीख... संघर्ष... सन्नाटा... मौत... भय... और... और सब खत्म हो गया... साहित्य नहीं रहा.“
टीवी पर दूसरा दिन/दिनभर
‘मातम का माहौल’
”मैं आपके टीवी पर पाप-प्रतीक कसाई, जूनियर के घर से बोल रहा हूँ. आप देख रहे हैं जूनियर के घर पर मातम का माहौल है. जूनियर की माँ का रो-रोकर बुरा हाल है, पता चला है कि उन्होंने जब से सुना है कुछ भी खाया-पीया नहीं है. आइये उनसे बात करते हैंµ माता जी... माता जी, हमारे दर्शकों को ये बताइये कि जब आपको जूनियर की मौत का समाचार मिला तो आपको कैसा लगा?... अच्छा रोइये मत... आप यह बताइये कि इस समय आपको कैसा लग रहा... आप टीवी पर हैं... माताजी.“

टीवी पर तीसरा दिन/दिनभर
‘परेशान हुई पुलिस’
पुलिस को जूनियर के हत्यारों का पता नहीं पड़ा. पैरों के निशान नहीं मिले हत्यारे कितनी संख्या में थे, कैसे आये थे,... पता नहीं चल रहा है.
आई जी पुलिस हमारे साथ हैं, उनका कहना है... ”हम कोशिश कर रहे हैं. सबूत इकट्ठा करने के प्रयास किये जा रहे हैं. जंगल में शायद डाकुओं का नया दल सक्रिय हो गया है. हम पता कर रहे हैं. मीडिया हमारी  पूरी मदद कर रहा है. जनता को भी यदि कोई जानकारी हो तो उसे भी पुलिस की मदद करना चाहिए.“
टीवी पर चौथा दिन/दिनभर
‘ग्रामीणों की गवाही’
”गाँव वालाजी, आप क्या जानते हैं जूनियर की हत्या के बारे में“
मुस्कराते हुएµ ”क्या है साब कि हमको तो पता नईं हे कुछ भी. हम तो जंगल में जाते-ई-नी हें, ना हमारे बच्चे लोग जाते हैं, ना औरतें जाती हैं.आजकल तो घर में-ई  कन्ना पड़ती हे. गोरमेंट का कानून हे कि कोई बाहेर नई करेगा. “
”क्यों नहीं जाते आप लोग जंगल में.“
”ये भूतहा जंगल है. भूत-प्रेत रेते हें इसमें. हत्यारा जंगल बोलते हें इसको.“
”कभी भूत देखे हैं आपने“
”हाँ, कई बार देखे हैं.“
”कैसे होते है भूत.“
”आपके-हमारे जेसे होते हें साब. कभी पास से नईं देखा.“
टीवी पर पाँचवाँ दिन/दिनभर
‘पकड़े जाएंगे प्रेत’
”आज हमारे सामने है पूर्वी भारत के सबसे प्रसिद्ध तांत्रिक काले बादशाह बाबा बंगाली. दर्शकों को बता दें कि काले बादशाह बाबा बंगाली को हम सबसे पहले आपके सामने ला रहे हैं. ...बाबा लोगों को लगता है कि जूनियर की हत्या प्रेतों ने की है... क्या ये सही हो सकता है.“ 
”हाँ, यह सही है... हम जल्दी ही उन प्रेतों का बोतल में बंद कर देंगे?“
”आप कब तक यह काम कर देंगे.“
”पाँच दिन पहले अमावस्या की काली रात थी तब प्रेतों ने जूनियर को मारा. अब वे अगली अमावस्या को फिर बाहर आएंगे... तब हम उन्हें पकड़ने में सफल होंगे.“
”क्या आपने पहले भी ऐसे प्रेतों को पकड़ा है.“
”कई बार... विदेशों में भी... पाताल से...“

टीवी पर छठा दिन/दिनभर
‘कमाल के कजरारे-कजरारे’
फिल्म फेस्टिवल की जोरदार तैयारियां...सितारे उतरेंगे जमीं पर... रात होगी रंगीन... ऐश्वर्या और अभिषेक पेश करेंगे कजरारे-कजरारे... पुलिस ने किये पुख्ता इंतजाम... मेटल डिटेक्टर से होकर गुजरना होगा वीआइपियों को भी... इंतजाम में सेना को भी लगाये जाने की संभावना... आप कहीं मत जाइये... देखते रहिये सिर पीटने तक.

Tuesday, March 6, 2018

कुमार अम्बुज की कविता

   जिसे ढहाया न जा सका











#जिसे##ढहाया##नहीं##जा##सका#

तुम मूर्ति ढहाते हो और इस तरह याद करते हो
                                        कि वह जीवित है

जिसे तुमने सचमुच मार ही दिया था
वह अब भी मुस्कराता है तुम्हारे सामने की दीवार पर
तुम्हारे छापेखाने उसीकी तस्वीर छापते हैं
तुम दूसरे द्वीप में भी जाते हो तो लोग तुमसे पहले
उसकी कुशलता के बारे में पूछते हैं
                                     तब तुम्हें भी लगता है
कि दरअसल तुम मर चुके हो और वह जिंदा है
बुदबुदाते हुए हो सकता है तुम मन में गाली देते हो
लेकिन हाथ जोड़कर फूल चढ़ाते हो
                                  और फोटू खिंचाते हो
तुम शपथ लेते हो वह सामने हाथ उठाये मुसकराता  है
तुम झूठ बोलते हो वह तुम्हारे आड़े आ जाता है
घोषणापत्र में तुम विवश उसीकी बातें दोहराते हो

मूर्ति ढहाने से सिर्फ मूर्ति ढहती है
और बचे रहते हैं सारे शब्द, स्मृति, आवाज,
            उन्हीं चौराहों पर तने खड़े रहते हैं विचार

फिर सारे सवाल मूर्ति के बारे में होने लगते हैं
बार-बार तस्वीरें दिखाई जाती हैं उसी मूर्ति की
उस जगह पर इकट्ठा होने लगते हैं तमाम पर्यटक
जिन्हें बताया जाता है कि यहाँ, यहीं, हाँ, इसी जगह,
वह मूर्ति थी।
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