Sunday, December 24, 2017

कैलाश मंडलेकर को पहला ज्ञानचतुर्वेदी सम्मान / २३-१२-२०१७


आलेख 
जवाहर चौधरी 

कैलाश मंडलेकर जी से मेरा परिचय बहुत पुराना है, इतना कि खुद मुझे याद नहीं हम कब संपर्क मे आए। लेकिन यह पक्का है कि संपर्क की तह में व्यंग्य ही है। लेखकों की यारी/दुश्मनी में प्रायः पत्रपत्रिकाओं की भी भूमिका हो जाया करती है. हम लोग साथ साथ खूब छपे हैं. खंडवा वैसे तो संगीत प्रेमियों की यूडलिंग जगह है. यह देश का एक बड़ा रेलवे जंक्शन भी है. लोग खंडवा जाते न भी हों, पर उधर से गुजरते जरुर हैं. सीताफल और अमरुद की बहार के समय भी इंदौर के लोग उधर का रुख करने को तत्पर रहते हैं. बहुत से आकर्षणों के बीच अब कैलाश मंडलेकर भी एक वजह हैं खंडवा के जिक्र में. 
बायोडाटा से इतर देखें तो कैलाश भाई एक नरम और नेकदिल इन्सान हैं. मित्र लोग जानते हैं कि वे कभी किसी से नाराज नहीं होते हैं. वे अपनी नाराजी को केवल रचनात्मक ऊर्जा के लिए बचा कर रखते हैं. इसलिए कोई तल्खी, कोई गुस्सा अगर दीखता है तो उनकी रचनाओं में ही. कुव्यवस्था कहें, या व्यवस्था ही कह लें, उसके खिलाफ व्यंग्य मूल रूप से नाराजी का लेखन है. सब जानते हैं कि व्यंग्य प्रशस्ति या गान का लेखन नहीं है. लेकिन नाराज होने की जो अदा और अंदाज कैलाश जी के पास है वह बहुत कम लोगों के पास दिखाई देता है. दिक्कत हमारे समय की यह है कि व्यंग्यकार जिन पर कुपित होते हैं वे पट्ठे खुद उस कोप का मजा लेने लगते हैं. 
लेखक की जिम्मेदारी होती है कि वो उस अंतिम आदमी तक पहुंचे जिसको आगे कर अक्सर राजनैतिक गढ़ जीत लिए जाते हैं. बाद में उस अंतिम आदमी का क्या होता है, सब जानते हैं. यहाँ यह रेखांकित करना होगा कि कैलाश भाई अपनी रचनाओं में इस अंतिम आदमी को जीते हुए दिखाई देते है. इसका कारण यह है कि उन्होंने आमजन के दुःख और कष्टों को बहुत करीब से देखा है. उनकी नजर राजनैतिक और बुर्जुआ चालाकियों को बहुत शिद्दत के साथ पकडती है. और उनमे इतना सहस है कि वक्त जरुरत इनके कान खींचने से वे चूकते नहीं हैं. कहा जाता है कि समय बड़ा विकट है. लोगों का खाना-पीना, पहनना- न पहनना, टीवी-फिल्म वगैरह में क्या देखेंगे-सुनेंगे, क्या लिखना और पढ़ना है, सब परदे के पीछे से नियंत्रित और निर्देशित हो रहा है. लेखक भी कुछ कुछ सावधानी सी बरतने लगे हैं. बावजूद इसके कैलाश मंडलेकर के तेवर समझौते की जद से बाहरदिखाईदेते हैं. व्यंग्य की उनकी तेग दिल्लीभोपाल नहीं देखती और न ही स्थानीय स्तर के किसी खतरे को तवज्जोह देती है. यहाँ दोस्त भी मौजूद होंगे इसलिए यह स्पष्ट करना जरुरी है कि उक्त बातें कैलाश जी के लेखन की प्रशंसा में कही गयी हैं, न कि किन्हीं महकमों को उन पर छू लगाने के इरादे से बोली गयी हैं. 
कैलाश मंडलेकर स्वान्तः सुखाय या मात्र मजे लेने के लिए नहीं लिखते हैं, उनका लेखन उद्देश्यपूर्ण होता है. वे जिम्मेदारी के साथ लिखते हैं और बड़ी सहजता से पाठक को भी इस जिम्मेदारी में शामिल कर लेते है. यही वजह है कि उनके पास व्यंग्य का एक गंभीर पाठक वर्ग मौजूद है. कई बार पता चलता है कि लेखन में सफल व्यक्ति पारिवारिक मोर्चे पर उतने सफल नहीं हैं. हममे से कई तो लेखन की ओट में अपनी अन्य जिम्मेदारियों से बच भी लेते हैं. लेकिन जैसा मैंने देखा है और मैं जनता हूँ कैलाश भाई आरम्भ से ही पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति बहुत गंभीर रहे हैं. बच्चों की शिक्षा-दीक्षा और पालन पोषण में उन्होंने कोई कोताही नहीं की है. 
 जैसा कि आप देख रहे हैं, मंडलेकर ऊँचे कद के आदमी हैं, इसमें खंडवा की दूध-जलेबी का योगदान भी है. लेकिन देखने वाले मानते हैं कि रिटायरमेंट के बाद से उनकी हाईट काफी बढ़ी है. बल्कि गौर करें तो पाएंगे कि उनकी हाईट हर हफ्ते बढ़ जाती है. खंडवा वाले बहुत जल्द कहने लगेंगे कि हमारे शहर में सबसे ऊँचा व्यंग्यकार है.
बात कुछ रचना प्रक्रिया की भी हो जाये. कैलाश भाई की रचना प्रक्रिया बहुत सरल है. ऍमफिल की एक शोधार्थी ने उनसे ऐसा ही कुछ सवाल किया तो उन्होंने कहा कि सुबह-सवेरे नहा-धो कर सबसे पहले मैं बेचैन हो लेता हूँ. शोधार्थी का तुरंत दूसरा वाजिब सवाल था कि -आप बेचैन होने के लिए क्या करते हैं ? न चाहते हुए भी कैलाश भाई को बताना पड़ा कि ‘किसी दूसरे व्यंग्यकार को फोन करता हूँ और पूछता हूँ कि “और क्या ? इन दिनों क्या कर रहे हैं ?”. अगर वह सच बताता है बेचैनी हो जाती है और झूठ बोले तो कुछ ज्यादा ही. राजधानी से तो अक्सर खबर आती है कि कोई किम जोंग और कोई ट्रम्फ के तेवर में है. व्यंग्यकार लोग उपन्यास बना रहे हैं, दाग रहे हैं ! छाती फोड़ बेचैनी के लिए इतना तो बहुत होता है. जवाबी उत्तेजना के तहत प्रदेश भर में कागज काले होने लगते हैं. पाठकों को डर इस बात का कि कहीं यह अफवाह न चल पड़े कि व्यंग्य के खां टुंडे कबाब खाने और खिलाने लखनऊ में डेरा डालें हैं तो प्रदेश भर में बाट जोह रही बेचैनी का क्या होगा !! शोधार्थी आसानी से कहाँ छोड़ते हैं, उसने आगे पूछा - कैलाश जी आप बेचैन होने में कितना वक्त लेते हैं ? इन्होने बताया- पहले जब रियाज अच्छी नहीं थी तो बेचैनी के मुजाहिरे में आधा पौना घंटा लग जाता था, लेकिन जब से अनुलोम विलोम साध लिया है फट्टदनी से बेचैनी तैयार हो जाती है. 
राजधानी में आज पहले ज्ञान चतुर्वेदी सम्मान से सम्मानित होना, उनका और उनके व्यंग्य लेखन का गौरव बढ़ाने वाला है. इसी तरह उनकी प्रशस्ति पताका निरंतर बुलंद होती रहे, इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ हार्दिक बधाई.
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Tuesday, August 15, 2017

श्री चंद्रकांत देवताले की तीन कवितायेँ



पुनर्जन्म

मैं रास्ते भूलता हूँ

और इसीलिए नए रास्ते मिलते हैं
मैं अपनी नींद से निकल कर प्रवेश करता हूँ
किसी और की नींद में
इस तरह पुनर्जन्म होता रहता है


एक जिंदगी में एक ही बार पैदा होना
और एक ही बार मरना
जिन लोगों को शोभा नहीं देता
मैं उन्हीं में से एक हूँ


फिर भी नक्शे पर 
जगहों को दिखाने की तरह ही होगा

मेरा जिंदगी के बारे में कुछ कहना
बहुत मुश्किल है बताना
कि प्रेम कहाँ था किन-किन रंगों में
और जहाँ नहीं था प्रेम उस वक्त वहाँ क्या था

पानी, नींद और अँधेरे के भीतर इतनी छायाएँ हैं

और आपस में प्राचीन दरख्तों की जड़ों की तरह
इतनी गुत्थम-गुत्था
कि एक दो को भी निकाल कर
हवा में नहीं दिखा सकता

जिस नदी में गोता लगाता हूँ

बाहर निकलने तक
या तो शहर बदल जाता है
या नदी के पानी का रंग
शाम कभी भी होने लगती है
और उनमें से एक भी दिखाई नहीं देता
जिनके कारण चमकता है
अकेलेपन का पत्थर



मैं आता रहूँगा तुम्हारे लिए 
मेरे होने के प्रगाढ़ अँधेरे को
पता नहीं कैसे जगमगा देती हो तुम

अपने देखने भर के करिश्मे से

कुछ तो है तुम्हारे भीतर

जिससे अपने बियाबान सन्नाटे को
तुम सितार सा बजा लेती हो समुद्र की छाती में

अपने असंभव आकाश में

तुम आजाद चिड़िया की तरह खेल रही हो
उसकी आवाज की परछाई के साथ
जो लगभग गूँगा है
और मैं कविता के बंदरगाह पर खड़ा
आँखे खोल रहा हूँ गहरी धुंध में

लगता है काल्पनिक खुशी का भी

अंत हो चुका है
पता नहीं कहाँ किस चट्टान पर बैठी
तुम फूलों को नोंच रही हो
मैं यहाँ दुःख की सूखी आँखों पर
पानी के छींटे मार रहा हूँ
हमारे बीच तितलियों का अभेद्य परदा है शायद

जो भी हो

मैं आता रहूँगा उजली रातों में
चंद्रमा को गिटार सा बजाऊँगा
तुम्हारे लिए
और वसंत के पूरे समय
वसंत को रुई की तरह धुनकता रहूँगा
तुम्हारे लिए


यमराज की दिशा 
माँ की ईश्वर से मुलाकात हुई या नहीं
कहना मुश्किल है

पर वह जताती थी
 जैसे ईश्वर से उसकी बातचीत होते रहती है
और उससे प्राप्त सलाहों के अनुसार
जिंदगी जीने और 
दुःख बर्दास्त करने का रास्ता खोज लेती है

माँ ने एक बार मुझसे कहा था 

दक्षिण की तरफ़ पैर कर के मत सोना
वह मृत्यु की दिशा है
और यमराज को क्रुद्ध करना
बुद्धिमानी की बात नही है


तब मैं छोटा था

और मैंने यमराज के घर का पता पूछा था
उसने बताया था
तुम जहाँ भी हो 
वहाँ से हमेशा दक्षिण में


माँ की समझाइश के बाद
दक्षिण दिशा में पैर करके मैं कभी नही सोया
और इससे इतना फायदा जरुर हुआ
दक्षिण दिशा पहचानने में
मुझे कभी मुश्किल का सामना नही करना पड़ा



मैं दक्षिण में दूर-दूर तक गया
और हमेशा मुझे माँ याद आई
दक्षिण को लाँघ लेना सम्भव नहीं था
होता छोर तक पहुँच पाना
तो यमराज का घर देख लेता



पर आज जिधर पैर करके सोओं
वही दक्षिण दिशा हो जाती है
सभी दिशाओं में यमराज के आलीशान महल हैं
और वे 
सभी में एक साथ
अपनी दहकती आखों सहित विराजते हैं



माँ अब नही है
और यमराज की दिशा भी अब वह नहीं रही
जो माँ जानती थी.

Tuesday, June 27, 2017

कवि माया मृग .......इस तरह पढ़ना दुख को !


इस तरह पढ़ना दुख को .........
दुख को जब भी पढ़ना- उलटा पढ़ना !
आखिरी पन्‍ने से शुरु करना
और शुरुआत का संबंध ढूंढ लेना
पहले पन्‍ने पर लिखे उपसंहार से
ये जानकर पढ़ना कि जो पढ़ा, उसे भूल जाना है----।

उलटे होते हैं दुख के दिन
रात भर खंगाले जाते हैं रोशनी भरे लम्‍हे
आंख बंद रखना अगर देखना है सब----।

दुख को फुनगी से काटना                                          पहली कोंपल का हरा सुख--पहला दुख है
पहला सुख निकालना होगा मिट्टी खोद खोदकर
जो दबा रह जाए उसे रहने देना
इसलिए कि इस दबे का ताल्‍लुक बढ़ने से नहीं है
जो दब गया उसे दबते जाना है---बस---।

उलटाकर देखना तकिए के नीचे रखी
पोस्‍ट ना की गई चिट्ठी
चिट्ठी के कागज को उलट कर देखना
कि कहां लिखा था कुछ जो पढ़ना था उसे
कितने शब्‍द उलटे पलटे पर कहां लिखी गई सीधी सी बात----।

दुख में उलटी चलती हैं घड़ियां
वक्‍त लौटता है हर बार पीछे
चादर को कोने से पकड़ना और उलट देना
रात भर जागे दुख को भनक ना लगे
यह उसके सुख के सपनों में सोने का वक्‍त है....!

प्रिंट मीडिया के ‘वन मैन सॉल्यूशन’ हैं यशवंत व्यास (फेम इंडिया-एशिया पोस्ट मीडिया सर्वे 2017)


आलेख 
जवाहर चौधरी 


यशवंत व्यास एक ऐसे पत्रकार हैं जिन्हें साहित्यकार, मीडिया आलोचक, सलाहकार, डिजाइनर और स्तंभकार सभी कुछ कहा जाता है। प्रिंट मीडिया की हर विधा में उन्हें महारत हासिल है और इसके पीछे उनका 30 से भी अधिक वर्षों का अनुभव काम करता है। कई मीडिया हाउस में संपादक व सलाहकार रहे यशवंत व्यास उन गिने-चुने पत्रकारों में शामिल हैं जो अखबार की डिजाइनिंग का भी अनुभव रखते हैं और अपने हिसाब से लेआउट बनवाने पर विश्वास करते हैं। फिलहाल वह अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित मीडिया समूह के सलाहकार संपादक हैं जो उत्तर भारत में अपने 20 संस्करणों के साथ अपनी विशेष पहचान रखता है।

1964 में मध्यप्रदेश में पैदा हुए यशवंत व्यास ने हाई स्कूल स्तर तक की पढ़ाई स्थानीय हायर सेकेंडरी स्कूल से की। इसके बाद गर्वमेंट कालेज रामपुरा से उन्होंने  बीएसी की पढ़ाई की। इंदौर के डीएवी यूनिवर्सिटी  से उन्होंने हिंदी लिटरेचर में एमए किया, वह गोल्ड मेडलिस्ट रहे और  लिटरेचर में पीएचडी की।

यशवंत व्यास से अपनी पत्रकारिता का आगाज नई दुनिया से 1984 में किया। यहां उन्होंने बतौर उप संपादक ज्वाइन किया था। नई दुनिया से उनका नाता 1995 तक रहा यानी अपने जीवन के शुरुआती 11 साल उन्होंने यहां बिताये। यहीं से उन्होंने सीखा कि एक कम्पलीट एडीटर को प्रोडक्शन -डिजाइनिंग का भी ज्ञान होना जरूरी है। उन्होंने दैनिक नवज्योति ग्रुप के साथ बतौर ग्रुप एडिटोरियल एडवाइजर 1996 से 1999 तक काम किया। सिंतबर 2000 से मार्च 2010 तक वे डीबीकार्प से जुड़े रहे, जहां  दैनिक भास्कर के एडीटर रहे। 2005 में उन्होंने अपने तरह की अलग और नये कलेवर वाली मैगजीन ‘अहा जिंदगी’ लांच की। यह पत्रिका हिंदी और गुजराती में थी, को काफी सराही गयी। उन्होंने इसे 1.5 लाख प्रिंट ऑर्डर के साथ लॉन्च किया जिसकी रीडरशिप 10.6 लाख से भी अधिक थी। अप्रैल 2010 से यशवंत व्यास अमर उजाला प्रकाशन लिमिटेड के समूह सलाहकार हैं।

यशवंत व्यास, आउटलुक और ओपन के संपादक रहे दिवंगत विनोद मेहता और प्रीतीश नंदी से काफी प्रभावित रहे हैं । उन्होंने इन संपादकों से सीखा है कि एक अच्छा कंटेंट , क्रेडिबलिटी और प्रेजेंटेशन से प्रभाव बदल सकता है।   कॉलम साइज से लेकर  तथ्यों और चित्रों की प्रस्तुति ,  विजुअलाइजेशन का ज़रूरी  हिस्सा है। यह सब उनके सभी  प्रयोगों और अमर उजाला के नये स्टाइल में भी शामिल है जो यशवंत व्यास की पारखी परख की देन है।  यशवंत को अपने शुरुआती कॅरियर के जमाने से ही कंटेंट के साथ-साथ लेआउट और डिजाइनिंग  उनके प्रयोगात्मक दृष्टिकोण के लिये जाना जाता है।वे बखूबी जानते हैं कि उपलब्ध संसा धनों और मौजूदा कर्मियों से बेहतर आउटपुट कैसे निकाला जाता है। यह एक लीडर की क्वॉलिटी है जो उनमें है। यशवंत व्यास को पता है कि सही जूते में ही जब सही पैर जायेगा तो संतुलन अपने-आप ही बन जायेगा। उनकी देखरेख में कई ब्रांडिंग कैंपेन बने जिन्हे  पाठकों ने  सराहा ।

साहित्य और पत्रकारिता में कैसे सामंजस्य होता है, इसका जवाब यशवंत व्यास की साहित्यिक रचनाओं से मिलता है। वे साहित्य को अभिव्यक्ति का एक माध्यम मानते हैं।  अब तक उनकी 11 किताबें आ चुकी हैं जो अलग-अलग फ्लेवर लिये हुए हैं।  यारी दुश्मनी, तथास्तु, रसभंग और नमस्कार सहित उनके कई लोकप्रिय कॉलम रहे हैं।

यशवंत व्यास कई किताबें लिख चुके हैं, जिनमें पत्रकारिता पर ‘अपने गिरेबान में’ और ‘कल की ताजा खबर’ प्रमुख मानी जाती हैं। उनके दो उपन्यास ‘चिंताघर’ और ‘कॉमरेड गोडसे’ पुरस्कृत हो चुके हैं। इसके साथ ही वे एक आला दर्जे के व्यंग्यकार भी है। उनके व्यंग्य संग्रह ‘जो सहमत हैं सुनें’, ‘इन दिनों प्रेम उर्फ लौट आओ नीलकमल’, ‘यारी दुश्मनी’ और ‘अब तक छप्पन’ को लोगों ने काफी सराहा है। उन्हें एक अलग पहचान दी उनके अमिताभ बच्चन के ब्रांड विश्लेषण पर लिखी किताब ‘अमिताभ का अ’ ने। साथ ही उनकी कॉरपोरेट मैनेजमेंट पर हिन्दी-अंग्रेजी में लिखी किताब ‘द बुक ऑफ रेज़र मैनेजमेंट-हिट उपदेश’ भी काफी पसंद की गयी।

उन्हें राष्ट्रीय पत्रकारिता फेलोशिप से सम्मानित किया जा चुका है। डिजिटल मीडिया में शुरुआत से  ही सक्रिय  रहे हैं।  साथ ही वह अंतरा इन्फोमीडिया के सह-संस्थापक हैं, जो मीडिया को समर्पित एक बहु-उद्देशीय संस्था है जो कई प्रकाशनों और  विशेष परियोजनाओं पर काम कर रही है। वह वरिष्ठ नागरिकों और नई पीढ़ी के बीच एक पुल बनाने के लिये एक विशेष परियोजना गुल्लक पर भी काम कर रहे हैं।  और कई अन्य प्रयोग भी उनके कामों की फेहरिस्त में शामिल हैं।  फेम इंडिया-एशिया पोस्ट मीडिया सर्वे 2017 में यशवंत व्यास को भारतीय प्रिंट मीडिया के एक प्रमुख सरताज के तौर पर पाया गया है।

Thursday, February 16, 2017

बिन गुरु ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोक्ष

आलेख 
जवाहर चौधरी 


गुरुदेवों में सबसे पहले दीक्षित जी याद आते हैं, उम्र कोई चालीस पैंतालीस, कद काठी के मजबूत, देखने में सौम्य, रंग खूब गोरा कि अंग्रेज होने का भ्रम होता था, समय के पाबंद भी इतने कि समझ में नहीं आता था कि वे घड़ी से चलते हैं या घड़ी उनसे. सख्ती के मामले में किसी कसाई से कम नहीं थे, ठुकाई-पिटाई में उनका विश्वास उस काल के गुरुओं के अनुरूप था. घरों में ट्यूशन लगाने का चलन हो गया था. तो दीक्षित जी ट्यूशन पढाने आया करते थे. मै और मेरा भाई, यूँ समझिए कि न पढ़ने पर आमादा थे. स्कूल में मस्ती और उसके बाद पूरी आजादी के साथ मस्ती. जहाँ हमारा घर है उसे नवलखा कहा जाता है, लोग कहते हैं कि राजे रजवाडों के समय इस क्षेत्र में नौ लाख पेड़ हुआ करते थे. चारों तरफ प्राकृतिक वातावरण, जैसा कि आजकल फिल्मों में भी कम दिखाया जाता है. घर में पूजा-पाठ और ईश्वर पर आस्था का माहौल था. दीक्षित जी ढेर सारा होमवर्क देते थे जो हम प्रायः नहीं करते थे. शुरू शुरू में उन्होंने रूटीन की डांट -फटकर और थप्पड़ों से काम चलाया लेकिन जल्द ही मामले को दिल पर लेने लगे. देखने में उनके गोरे हाथ, लाली लिए हुए, बहुत कोमल और सुन्दर दीखते थे, लेकिन जब मारते थे तो लगता था कोई तीसरा हाथ भी है उनके पास. वे सजा देने की ऐसे ऐसे तरीके अपनाने लगे कि मुझे अब लगता है यदि वेसाइंस पढ़े होते तो उनके नाम कई अविष्कार अवश्य दर्ज होते. जब मारपीट का असर नहीं हुआ तो उन्होंने मुर्गा बनाने का संकल्प ले लिया. लेकिन जल्द ही मुर्गा बनने में हम दक्ष हो लिए. दस-पन्द्रह मिनिट में उनका धैर्य टूट जाता लेकिन हमारी हिम्मत कायम रहती. वे किसी दिन एक टांग पर खड़ा करते, कभी उठक बैठक आजमाते. डेढ़ महीने में वे मल्टीटास्क नीति अपनाने लगे. अब वे पढाने वाले गुरु कम फिजियोथेरेपिस्ट ज्यादा लगते थे. लेकिन बच्चे तो बच्चे होते हैं जी, कब तक दम भरते आखिर. घंटा भर की फिजियोथेरेपी भारी पडने लगी तो जवाबी कार्रवाई में उनके आते ही शौचालय में बंद हो कर अपनी रक्षा की. सोचा था यह एक दीर्ध कालीन योजना होगी किन्तु तीन चार दिनों बाद ही ये युक्ति बेअसर कर दी गई. आखिर जैसा कि अक्सर होता है, जब कहीं सम्भावना नहीं होती तो लोग ईश्वर की शरण हो लेते हैं. पता नहीं क्यों मुझे ईश्वर में बड़ा विश्वास था. मैंने ईश्वर के पास जा कर प्रार्थना की कि भगवान आज दीक्षित जी ना आयें. ठीक साढ़े चार बजे वे आ जाते थे, पौने पांच हो गए ! पांच हो गए, और उस दिन वे नहीं आये. अब हाल ये कि मेरे तो बस भगवानजी दूसरों न कोई . जैसे तुरुप का इक्का हाथ लग गया. दूसरे दिन साढ़े चार बजे फिर वही प्रार्थना. और उस दिन भी दीक्षित जी के दर्शन नहीं हुए. उत्साह में जबरदस्त इजाफा, मन में जो डर था वो गायब हुआ सा लगने लगा. तीसरे दिन भी साढ़े चार बजे और इधर प्रार्थना का शक्ति परिक्षण शुरू हुआ. लेकिन ये क्या !! दीक्षित जी हाजिर थे ! ईश्वर का ये मजाक मुझे पसंद नहीं आया. भगवान से कुछ नाराजी व्यक्त करते हुए आखिर कसाईवाडे में समर्पित होना पड़ा. दीक्षित जी ने दो दिन की कसर भी पूरी कर ली. उसके बाद कुछ रोज तक प्रार्थनाएं हुईं और जैसा कि होना था ईश्वर पर से मेरा विश्वास उठ गया.
बहुत समय बाद एक गुरुदेव मिसिर जी उत्तर प्रदेश से हमारे घर आये. नवलखा में ही एक सरकारी कालेज है, वहाँ उनकी नौकरी लगी थी, प्रोफ़ेसर हो कर आये थे. हमारा बड़ा परिवार, खूब जगह, आसपास खेत-बगीचे, रहने के लिए कई कमरे, बहुत से खाली, उन दिनों किराये से देने का चलन नहीं था. गुरुदेव ब्राह्मण, सो पूज्य भी. तीस-पैंतीस की उम्र, विनय पूर्वक उन्हें स्थान दिया, वे साथ ही रहने लगे. तीन घंटे कालेज में रह कर लौट आते. एक बड़ा कुँआ था जिस पर सुबह नहाते वे एक मन्त्र सा बोला करते थे  बम्म गौरा टन्न गणेश- पादे गौरा हँसे गणेश. सुन कर हम हँसते. उनके प्रोफ़ेसर होने का खौफ शीघ्र खत्म हो गया. मै मिडिल स्कूल पास हो गया था. गुरुदेव के साथ शतरंज खेलते, चर्चा करते दिन गुजर जाता.  हमारे घर में कुछ किताबें थीं, कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी, प्रेमचंद आदि की और चंद्रकांता संतति वगैरह भी जिन्हें थोड़ा बहुत पढ़ने का मौका मिल रहा था. मिसिरजी ने मेरी रूचि जान कर महेंद्र भल्ला एक उपन्यास दिया भोली-भाली. भारत-पाकिस्तान सीमा पर एक लड़की अनजाने में सीमा पर कर जाती है और लगातार मुसीबतों में पड़ती है. रोमांचक कहानी थी, हाल में हमने सबरजीत प्रसंग के रूप में इसे देखा है. भल्ला का उपन्यास दूसरी तरफ भी साप्ताहिक हिंदुस्तान में पढ़ा जो विदेशी जमीन पर भारतियों की स्थिति का चित्रण करता है. स्कूल में वार्षिक पत्रिका निकाली जाना थी. छात्रों से रचनाएँ आमंत्रित की गईं थीं. मिसिरजी से कहा कि कुछ बताएं कि कैसे लिखूं, कोई कविता या कोई लेख, कहानी कुछ. उन्होंने कुछ लिखवाया जो जमा नहीं. रचना देने की अंतिम तिथि पास आ रही थी तो किसी कालेज की पत्रिका देते हुए बोले ये लो इसमें से ये दो पेज की कहानी अपने हाथ से लिख कर देदो. उन्होंने बताया कि यह पत्रिका उत्तर प्रदेश की है, यहाँ कोई जान नहीं पायेगा, पूछे तो कहना कि मैंने ही लिखी है. कहानी मैंने जमा कर दी. कुछ दिनों बाद क्लास टीचर ने चलती कक्षा में पूछा कि ये कहानी तुमने लिखी है !? ये मजुमदार सर थे, और सख्त मिजाज थे. मैं डरा, लेकिन कहा कि जी हाँ मैंने लिखी है. इधर आओ, उनका आदेश हुआ. मुझे लगा चोरी पकड़ी गई है, अब शायद पिटाई भी हो सकती है. अपमान का डर, घिघ्घी सी बांध गई. बदन कांप रहा था. लेकिन पास गया तो उन्होंने शाबाशी दी, खूब पीठ ठोकी. लड़कों को कहा कि देखो इस लडके को. इसने इतनी अच्छी कहानी लिखी है. बोले बेटा तुममे बहुत प्रतिभा है. इसी तरह से लिखते रहो. एक दिन तुम बड़े लेखक बनोगे और अपने स्कूल का नाम रौशन करोगे. अब मेरे लिए एक विचित्र अनुभव की स्थिति थी. सच बोलना संभव नहीं था, उतने ही भारी पड़ रहे थे मजुमदार सर के आसीस. दीक्षित जी वाले प्रसंग के बाद पहली बार मुझे भगवान याद आने लगे. सिर झुकाए देख वे और प्रभावित हुए, बोले तुम बहुत विनम्र भी हो, ये अच्छी निशानी है. शाबाश, जाओ, बैठो .
शाम को मैंने यह बात ग्लानी के साथ मिसिर जी को बताई. वे खूब हँसे. बोले –“ ये बढ़िया हुआ. अब कोई कुछ नहीं बोलेगा.... देखो दुनिया ऐसे ही चलती है.
यों तो बात आई गई हो गई. लेकिन सख्त मिजाज मजुमदार सर जब भी मुझे देखते मुस्करा देते. उनकी मुस्कराहट से बचने के लिए मै कोशिश करता कि सामने ना पडूँ. लेकिन मौका आ ही  जाता. एक चोर अंदर ही अंदर मुझे खाए जा रहा था. आखिर एक दिन पत्रिका प्रकाशित हुई और मैंने उसे छुपा लिया, किसी को दिखाया नहीं. मिसिर जी को भी नहीं. वे भूल गए थे, लेकिन मैं नहीं भूल पा रहा था. मन में एक अपराध बोध घर कर गया था. मन बहुत होता कि कोई कहानी खुद लिखूं और चोरी के इस बोझ को उतर दूँ . पढ़ने के शौक में एक  बार मुझे पर्ल बक की किताब हाथ लगी. डायरी की तरह लिखी यह किताब मुझे अच्छी लगी और मैं भी डायरी लिखने लगा. पता नहीं चला कि शब्द कब डायरी से निकल कर रचनाओं में बदलने लगे. जो भी हुआ, आज मैं अपने गुरुदेवों को खूब याद करता हूँ .
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