प्रियदर्शन की कहानियाँ महानगरीय परिवेश की होने के बावजूद
व्यवस्था को इस तरह से सामने रखती हैं कि सर्वव्यापी लगती है . कथा कथन का अंदाज
सीधा पाठक को जोड़ लेता है. शीर्षक कहानी ‘बारिश, धुंवा और दोस्त’ २४ की उन्मुक्त लड़की और ४२ वर्षीय पुरुष के बीच अपरिभाषित संवेगों को
बहुत खूबसूरती से चित्रित करती है . शैफाली चली गई और सुधा का फोन स्त्री मन को
अच्छे से पढ़ती हैं. वहीँ ‘घर चले गंगा जी’, ‘थप्पड़’, ‘बांये हाथ का खेल’ और ‘उठते
क्यों नहीं कासिम भाई’ कहानियाँ अपने चरित्रों के साथ
न्याय ही नहीं करती सोचने पर भी विवश करती हैं . प्रियदर्शन की भाषा सरल और
आत्मीयता से भरी है जो पाठक को कहानी के प्रवाह में आसानी से ले लेती है. जहां सिस्टम
की खामियां आयीं हैं वहाँ भाषा में व्यंग्य का पुट दिखाई देता है. निसंदेह
प्रियदर्शन का यह संग्रह न केवल सामान्य पाठकों के बीच बल्कि सहित्य समाज में भी
सम्मान प्राप्त करेगा.
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