Monday, September 8, 2014

आईने में भ्रम

                            

आलेख 
जवाहर चौधरी 


यों तो बुढ़ापा काफी समय से मुझे आंखें दिखा रहा था लेकिन मैं  खिजाब की ढ़ाल बना कर ढीठ बना रहा । मैं किसी तरह मानने को तैयार ही नहीं कि रवायत के तौर पर ही सही, उसे आना है और वह आएगा ही। आखिर एक दिन मैं  ‘अभी तो मैं जवान हूं’ सोचते हुए, अनचाहे रिटायर हो गया  और सिर कटे घड़ की तरह घर लौट रहा था।  बुढ़ापा मेरे आगे आगे, बिना इजाजत, पूरी बदतमीजी से मुझे  ठेलते हुए घर में मुझसे पहले घुस आया और पूरे कमीनेपन से बोला, -‘‘अब कहां जाओगे बच्चू, अब इस जहां में मैं हूं और तुम हो, ध्यान रखो तुम्हें मेरे साथ ही बचा समय गुजारना होगा !’’ 
                    अपने बुढ़ापे को मैं  किसी भी सूरत में और किसी भी कीमत पर नहीं देखना चाहता था । जोर का गुस्सा आया मुझे , इच्छा हुई कि उठा कर पटक मारूं  बुढ़ापे को। इतनी ताकत तो छोड़ी है नौकरी कराने वालों ने मुझ में। अभी तमतमा कर सोच ही रहा  था कि वह फिर बोला- ‘‘ गुस्सा मत करना प्यारे, ब्लडप्रेशर एक्सप्रेस ट्रेन  सा छूट जाएगा। लोग कहेंगे कि कमजोर था रिटायरमेंट बरदश्त  नहीं हुआ। .... तीन दिन बाद दुनिया सबको भूल जाती है।’’
               ‘‘आखिर चाहते क्या हो तुम !?’’ मैनें  हथियार डाले।
                ‘‘ यही कि मैं तुम्हारा बुढ़ापा हूं मुझसे डरो मत। मेरा आदर करो, थोड़ी समझ से काम लो तो मुझ पर गर्व भी कर सकते हो। तुम खुद जिन्दगी भर इस चिंता में रहे हो कि बुढ़ापा बिगड़े नहीं। आज जब मैं सामने हूं तो नजरें चुरा रहे हो ! सोचो अगर मैं बिगड़ गया तो क्या तुम मुझसे जीत जाओगे ?’’ वह बोला।
               ‘‘ तो तुम्हीं बताओ अब मैं क्या करूं ? टिप्स दो कुछ ।’’ मैं  शांत हुआ ।
                  ‘‘ सबसे पहले आंखें बंद रखना सीखो। दुनिया को कम से कम देखो। अपने भीतर झांको, जो कि आज तक तुमने नहीं किया है। सुखी रहना है तो भीतर देखो, मन की आंखें खोलो। ’’ पहला लेसन मिला।
                 लेकिन मैं  नहीं माना , बोला -‘‘ ये कैसे हो सकता है महाराज !! जीवन भर का अनुभव है मेरे पास। ज्ञान बांटना अब मेरा विशेषाधिकार है। लोगों को सिखाने के लिए मैंने तो कमर कस रखी है।’’
                  ‘‘ तुम ज्ञानी हो इस बात का प्रमाण क्या है ?’’ उसने पूछा।
                   ‘‘ रिटायर आदमी को प्रमाण की अलग से क्या जरूरत है !? ’’ 
                   ‘‘ तुम आईना देखते होगे, .... क्या दिखता है तुम्हें ? एक बूढ़ा आदमी ?’’
                   ‘‘ मैं क्यों बूढ़ा दिखूं ... मैं नहीं हूं बूढ़-उढ़ा ।’’
                  ‘‘ जब कोई बूढ़ा आईना देखे और उसे बूढ़ा ही दिखाई दे तो समझो कि वो ज्ञानी है। वरना वह भ्रमित है। भ्रम और ज्ञान दोनों एक साथ कैसे रह सकते हैं श्रीमान ? दूसरों को भी भ्रमित करने का काम मत करो।’’
                    बात समझ में आई। और भी गूढ बातें जानना चाहता हूँ  इसलिए बैठे बैठे बातें करते रहता  हूँ । .... लोग समझ रहे हैं … शायद पागल । 
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Wednesday, April 30, 2014

दुःख का जनक विकास !



आलेख 
जवाहर चौधरी 


लगता है तकनीकी विकास और तेज रफ्तार जिन्दगी ने समाज को दो भागों में बांट दिया है। एक वे हैं जो भौंचक से पचास पार की उम्र जी रहे हैं और दूसरी है हमारी नई पीढ़ी, जिसके मूल्य और आदर्श अभी भी किसी परिभाषा की प्रतीक्षा में हैं। वे धरती पर आ गए हैं और एक मुक्त उपभोक्ता की तरह मौजूद हैं। उन्हें किसी तरह की बंदिश सहन नहीं है, न घर-परिवार की, न परंपराओं की और न ही नैतिकता-वैतिकता की। चमत्कारों से भरे संसार में उन्हें जन्म मिला है तो वे किसी की परवाह किए बगैर भरपूर जी लेना चाहते हैं। बाजार उन्हें बताता है कि ‘असली जिन्दगी’ क्या करने में है। उनके पास क्या होना चाहिए, पचास हजार का स्मार्ट फोन और लाख रुपए की बाइक तो बनती है। उन्हें क्या पीना और खाना जरूरी है, नाइट क्लबों, होटलों, जुआघरों, रेव पार्टियों आदि में असली मजा मिलता है। इस सब के लिए पैसा चाहिए तो मां-बाप एटीएम की तरह मौजूद हैं। उन्हें पता है कि मां की नाक दबाने से बाप का मुंह खुलता है, या इसका उल्टा भी। शुरू में संतान-प्रेम के कारण उनकी जेबें खुलती है और बाद में अनेक दबाव यह काम करवाते हैं। बच्चे चाहते हैं कि पैसा देते वक्त मां-बाप उनसे कोई कारण न पूछें। वे मान कर चलते हैं कि जो भी कमा कर रखा गया है वह सिर्फ उनके लिए है। जैसे बैंक नहीं पूछती कि आप पैसा ले जा कर क्या करोगे वैसे ही घर के लोगों को भी नहीं पूछना चाहिए। इधर पैसा पैसा जोड़ कर जो इकट्ठा किया था वह फिजूल खर्च होता देख आखिर बुजुर्गों की हिम्मत जवाब देने लगती है। हारते हुए आखिर एक दिन वे उस डर की परवाह भी छोड़ देते कि ‘बेटा कुछ ऐसा-वैसा न कर ले’ और हाथ उंचे कर देते हैं। ऐसी स्थिति में खबरें अलग ढंग से सामने आती हैं। किसी भी बड़े अखबार में देख लीजिए, प्रतिदिन दस से बारह जाहिर सूचना के विज्ञापन मिलेंगे जिसमें माता-पिता अपने बेटे-बहु को अपनी संपत्ती से बेदखल कर रहे हैं। कारण भी साफ लिखा है कि उनका चाल चलन ठीक नहीं हैं। वे कहना नहीं सुनते हैं और उनके साथ दुर्व्यवहार करते हैं। यह भी कि उनसे किये गये किसी भी व्यवहार, विशेषकर आर्थिक, के लिए वे उत्तरदायी नहीं होंगे। जहां एक से अधिक पुत्र हैं वहां संपत्ती के बटवारे को ले कर खूनी संधर्ष भी हो जाते हैं। कुछ घटनाएं ऐसी हुई हैं कि बंटवारे में हुए किसी पक्षपात को लेकर पुत्रों ने पिता को पीट पीट कर बैकुण्ठ भी पहुंचाया है। मां-बाप को घर से बाहर कर देने की खबरें अब चौंकाती नहीं हैं। वो तो सचमुच ही सपूत हैं जो अपने बूढ़ों को ‘आदर पूर्वक’ वृद्धाश्रम में छोड़ देते हैं। सोचने में आता है कि सभ्यता के किस मुकाम पर पहुंच गए हैं हम ! घर में एक या दो बच्चों का चलन इसलिए अपनाया गया कि उनको काबिल बनाया जा सके। यह देखना होगा कि हमारी सामाजिक व्यवस्था में और हमारी शिक्षा पदृति में कौन सी कमियां है जहां निर्माण की बुनियाद विखण्डन पर रखी जा रही है। यदि बाजार बुद्धि भ्रष्ट कर रहा है तो उसे रोकना होगा। तकनीकी विकास यदि संबंधों रौंद रहा है तो उस पर नियंत्रण जरूरी है। यदि यह विकास है तो इसे दुःख का जनक क्यों होना चाहिए ! ----

Wednesday, March 19, 2014

आखिर कौन है कार्यकर्ता !

             
 
आलेख 
जवाहर चौधरी 


 कहते हैं श्वान एक वफादार प्राणी है तो इस वाक्य में श्वान  के प्रति वफा से पैदा हुई वो इज्जत होती है जो अब शायद सब इंसानों या यों ही कहें कि राजनीति क्षेत्र के लोगों को नसीब नहीं है। सफाई में हमें यह भी सुनने को मिल सकता हैं कि "कुछ  तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता।" चाहे राजनीतिक ही क्यों न हो, विचारधारा एक संस्कार की तरह होती है, जो हवा के झोंकों के साथ बदलती नहीं रह सकती है, चाहे सही हो या गलत। संसार में पूर्ण सही या पूर्ण गलत को लेकर विद्वान माथाफोड़ी करते रहे हैं किन्तु नतीजा शून्य ही रहता आया है। ऐसे कई हैं जो स्वयं को दल के प्रति निष्ठावान घोषित करते चले आ रहे थे, अचानक उस ओर चल देते हैं जिसकी घोर निंदा करते रहे हैं। किस लिए भई !! आज ऐसा क्या हो गया आखिर कि विचारधारा ही बदल गई ! उस पर ताज्जुब यह कि वे अपने कार्यकर्ताओं के साथ दल बदलते हैं ! ये कार्यकर्ता कौन होते हैं ? क्या वे रोबोट की तरह होते हैं ? उनमें बुद्धि नहीं होती ! या फिर वे खरीदे गुलाम होते हैं ! वे सोचते विचारते नहीं हैं क्या ? दल से संबंधित संस्कार या विचारधारा का उनसे कोई नाता नहीं होता है!? कहने को ग्रासरूट पर कार्यकर्ता ही काम करता है, तो सवाल ये है कि वो स्वैच्छा से करता है या दल का दैनिक भुगतान वाला मजदूर है ? वो अपने नेता का बंधुवा मजदूर है ? यदि है तो उसमें और जमींदार के मजदूरों में कोई फर्क है ? मालिक ने निष्ठा बदली और सारा अमला दूसरी तरफ काम करने लगा !! लोकतंत्र के यज्ञ में कार्यकर्ता सबसे अहम इकाई है, तो वह कहीं भी हांकी जाने वाली भेड़ों की रेहड से अलग क्यों नहीं है, अगर नेता के प्रति कार्यकर्ता का निष्ठावान होना जरूरी है तो नेता के लिए निष्ठागत स्वतंत्रता क्यों ?  दलबदल के इस मौसम में मूर्ख बन रहा कार्यकर्ता जान रहा है कि उसका आका किसी सौदे के तहत बिक रहा है ! अगर उसका कोई ईमान नहीं है तो कार्यकर्ता उसके प्रति क्यों ईमानदार रहे ! अवसर छोटे ही सही, छोटों के पास भी आते हैं। बड़ा बड़े प्रस्ताव पर बिकता है तो छोटा छोटे प्रस्ताव पर क्यों नहीं बिके ! बड़ा अपनी बेईमानी को राजनीति कहता है तो छोटे के लिए यह अलग कैसे ? सच्चाई यह है कि कार्यकर्ता दो तरह का होता है। एक. जो अपने लिए राजनीति में जगह तलाश रहा हो। ऐसे लोग प्रायः संपन्न और प्रभावी प्रष्ठभूमि से आते हैं, इन्हें सत्ता की चाह होती है अपने धन की रक्षा और वृद्धि के लिए। दूसरे. वे होते हैं जो कटी पतंग की तरह होते हैं और उसके हो जाते हैं जो उनकी डोर पकड़ ले। एक मौका होता है भियाजी की नजरों में चढ़ने का। महीना.डेढ़ महीना भियाजी का काम कर लिया तो बाद में भिया थाने से छुडवाने, जमानत करवाने या पुलिस को फोन करने के काम आते रहेंगे। इन्हें मतलब नहीं कि भियाजी किस पत्तल में खा रहे हैं और किस में छेद करके उठे हैं। यह पूरी तरह से स्थानीय मामला है और पारस्परिक लेन.देन पर टिका हुआ है। तो सवाल वहीं का वहीं रह जाता है कि दलों के पास असली कार्यकर्ता कहां है ? यदि नहीं है तो क्यों नहीं है ? फिर दल  कैसा !? और किसका !?
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