Thursday, May 26, 2011

जाहिर है तेरा हाल सब उन पर , कहे बगैर.


                        
आलेख 
जवाहर चौधरी 

     कल मैं बहुत देर तक गेट पर इंतजार में खड़ा रहा कि कोई निकले तो उसे चिठ्ठियां दे दूं कहीं लाल डिब्बे में डालने के लिए । निकले कई नौजवान पर बाइक पर सवार , लगभग उड़ते हुए । कोई पैदल या सायकल पर नहीं निकला । लगा जैसे नौजवानों ने पैदल चलना ही छोड़ दिया है । सायकल तो खैर अब शान  के खिलाफ है । फटी जीन्स फैशन  हो सकती है लेकिन सायकल नहीं । 
                  मुझे याद आया पचास वर्ष पहले का समय , तब जनसंख्या कम थी साधन सुविधा भी न्यून थे । लेकिन किसी वरिष्ठ  नागरिक को किसी काम के लिए ज्यादा देर तक बाट जोहने की जरूरत नहीं पड़ती थी । घरों में बच्चे खूब थे , किसी को भी पुकारो और काम कह दो , हो जाता था । हम लोग ही दौड़ कर काम कर आते थे । इसमें कुछ भी विशेष  नहीं था । अब घरों में एक-दो बच्चे हैं , जाहिर है बड़े कीमती हैं । इतने कि दूसरे इनसे ‘हेल्लो’ कर सकते हें कोई काम नहीं कह सकते । खुद मां-बाप भी उनसे काम नहीं लेते हैं , करियर का ध्यान है । अब बच्चे पैदा होते ही कुछ बनाए जाने का ‘कच्चा सामान’ हो जाते हैं । उनका वक्त मां-बाप के वक्त से ज्यादा कीमती है ।
                शाम  को मित्र आए , चर्चा में उन्हें दुखड़ा रोया । वे बोले - चिठ्ठी तो ठीक है अब दवा ला देने वाला भी नहीं मिलता है यार ।
             ‘ फिर तुम क्या करते हो ? ’ मैंने पूछा ।
             ‘‘ इंतजार करता हूं । तुम भी इंतजार किया करो । इंतजार करने का मजा कुछ और होता है । समझे ?
और गालिब के इन शेरों पर गौर कीजिए जरा --
गालिब , न कर हुजूर में तू बार बार अर्ज 
जाहिर है तेरा हाल सब उन पर , कहे बगैर

काम उससे आ पड़ा है, कि जिसका जहान में
लेवे ना कोई नाम, सितमगर कहे बगैर 

Friday, May 6, 2011

अधिकारी आवास परिसर में महंगाई !!




आलेख 
जवाहर चौधरी         

       उन्होंने रविवार सुबह साढ़े दस बजे चाय पर आमंत्रित किया । मेरे पुराने परिचित, जो मित्र ही होते यदि नौकरी के चलते बाहर चले नहीं गए होते । किस्मत जोरदार थी उनकी कि बैंक में अधिकारी लगे । बैंक का अधिकारी होना उनदिनों हमारे तरफ वैसी घटना थी जो यदाकदा ही घटित होती है । पहली नियुक्ति छोटी जगह मिली, लेकिन बंगला बैंक ने उपलब्ध कराया । चपरासी पूरे समय घर के लिए नहीं था किन्तु काफी समय के लिए होता था ।शुरुवात  में दो चार बार फोन पर इन सब आनंद-मंगल की बातें हुई, बाद में रुकावटें आने लगीं । शादी  बड़े घर में ही होना थी क्योंकि उन दिनों भी अधिकारी-लड़के बड़े घर वाले ही अफोर्ड कर पाते थे । पत्नी आई तो अपने साथ पूरा संसार ही ले आई । इसके बाद वे यहां-वहां स्थानांतरित होते रहे । उनकी खबर मिलना बंद हो गई । 

                अर्से बाद हमारे शहर  में बड़े अधिकारी के रूतबे के साथ उनका तबादला हुआ । बड़े नगरों में प्रायः बैंकों के अपने आवासीय परिसर होते हैं । जहां तमाम बैंक अधिकारी निवास करते हैं । परिसर का रखरखाव बैंक के जिम्मे है सो सुन्दर बगीचा और सीमेंट के प्री-कास्ट रंगीन ब्लाक्स से सज्ज्ति ऐसा मनोरम वातावरण कि माहल्ले में रहने वाले मित्र की हैसियत गिर कर सुदामा-सुदामा याद करने लगे । मुख्य द्वार पर आलीशान  शिलालेख, जिस पर पीली घातु से उभरे अक्षरों में लिखा है ‘फलांबैंक अधिकारी आवास परिसर’ । बगल के झरोखे युक्त शेड  में वर्दीधारी चौकीदार  जिसके हाथ में परिसर की धाक बढ़ाती बंदूक । मंगते-भिखारी, सेल्समेन, गाय-कुत्ते वगैरह की तो बात ही क्या , स्कूटर से आने वाले आगंतुक को भी बताना होता है कि उसे किन ‘साहब’ से मिलना है और नाम व स्कूटर का नंबर दर्ज करने के बाद अंदर जाने की इजाजत होती है ।
मैं ठीक साढ़े दस बजे पहुंचा , औपचारिक बाधाओं को पार करता उनकी नेमप्लेट के नीचे लगी कालबेल का बटन अभी दबाया ही था कि एक झक्क सफेद पामेरेरियन भौंकता जाली के पीछे से पंजा मारने लगा । आसपास खिड़कियों से कुछ जोड़ा मादा निगाहें मुझ पर गड़ीं लेकिन जल्द ही हट भी गईं । जब पामेरेरियन पर्याप्त भौंक चुका , अंदर से एक रौबदार जनाना आवाज ने उसे रुक जाने का आदेश  दिया और वह ऐसे रुका जैसे बैटरी चलित खिलौने का स्विच-आफ कर दिया गया हो । दरवाजा खुलने पर मैंने अपना नाम बताया बदले में उन्होंने चौकानें  और प्रसन्न होने के मिश्रित भाव से स्वागत किया । ये ‘भाभीजी’ हैं, इनसे पहले दो-तीन बार संक्षिप्त मुलाकातें हुई हैं । बोलीं - ‘‘ ये बोले थे कि साढ़े दस का टाइम दिया है पर वो टीचर हैं, ग्यारह से पहले नहीं आएंगे । ’’
इसका क्या जवाब हो सकता था ! उफ् ! टीचर की इमेज !
‘‘ इसलिए मैं भी दूसरे काम निबटा रही थी, आज संडे है ना बड़ा बीजी दिन होता है । ’’
‘‘ सारी ...., आगे से टीचरों की इमेज का ध्यान रखूंगा । ’’
‘‘ अरे नहीं , आप बैठिए न , आते ही होंगे । ’’
‘‘ कहीं गए हैं ?!!’’
‘‘ आज संडे है ना , सब्जी लेने मंडी जाते हैं । ’’

                यहां सब अधिकारी हैं, सब के पास कार, सब समृद्ध, सबके पर्स में बड़ा वेतनमान, सबके बड़े बंगले, बड़े बैठक कक्ष, माटे मोटे बड़े सोफे, बड़े एलसीडी, कोने में निजी बार से झांकती बड़ी बड़ी बोतलों के सुन्दर कैप और घूमते पंखों के बीच अटल एसी । हुसैन-बेन्द्रे की पेटिंग्स और किसी अनचीन्हे राजे-रजवाड़े का एक पोट्रेट  जो शायद  अब बैठक में ‘साहब’ के पुरखे की भूमिका अदा कर रहा है ।
‘‘ यहां सब्जी वाला नहीं आता है ? ’’
‘‘ आता तो है, पर ये लोग तो लूटते हैं ! भाई साब कोई सब्जी आठ-दस रुपए पाव से कम नहीं मिलती है । ’’
‘‘ आजकल मंहगाई बहुत बढ़ गई है । ’’
‘‘ हमें भी ऐसा ही लगता था । पर पता चला कि मंडी में बड़ी सस्ती है । ’’
‘‘ अच्छा !! ’’
‘‘ संडे छुट्टी रहती है तो चार-पांच आफिसर एक कार में चले जाते हैं । ’’
‘‘ इससे तो पेट्रोल  की बचत होती है । ’’
‘‘ हाँ  , और सब्जी भी थोक के भाव ले आते हैं । ’’
‘‘ थोक के भाव !!!’’
‘‘ भाई साब एक बड़ा सा कद्दू बीस रुपए में मिल जाता है, कम से कम पंद्रा किलो का ....’’
‘‘ सिर्फ बीस रुपए में !!!’’ हमने शिष्टाचारवश  चकित होते रहना जारी रखा ।
‘‘ हां , ... और टमाटर , गोभी, बैंगन, लौकी सब टोकरी से खरीद लो । धनिया कितना मंहगा है ! वहां दस-बारह किलो की एक पोटली धनिया सात-आठ रुपए में मिल जाता है । ’’
‘‘ अच्छा !!!’’
‘‘ बस घर ला कर बराबर बाँट  लो आपस में । हप्ते भर की सब्जी हो जाती है मजे में । ’’
‘‘ सो तो ठीक है भाभीजी , लेकिन अगर सब लोग ऐसा करेंगे तो फेरीवालों का घर कैसे चलेगा । उनके लिए भी तो वही मंहगाई है जो हमारे लिए है । ’’
‘‘ अब इतना सोचने लगे भाई साब तो चल चुकी जिन्दगी । ’’
दरवाजे पर हलचल हुई , मित्र कद्दू का एक बड़ा सा पीस और थैला भर सब्जी लिए प्रवेश  कर रहे थे । बोले - अरे ! तुम आ गए !