Thursday, March 31, 2011

मन को करें प्रशिक्षित .

                
आलेख 
जवाहर चौधरी 

    कहा जाता है कि समय से पहले और भाग्य से ज्यादा किसीको नहीं मिलता है . जीवन में जो घटता है वो भाग्य का ही लिखा होता है, दुःख भी  . इसलिए मान लो कि हमें  भाग्य के अनुसार ही सब कुछ मिला है - घर-परिवार, सम्बन्धी , कपडे़-लत्ते , भोजन, मकान, शिक्षा , देश - समाज व संगती,  सब  .  इसके अलावा अन्य  जरूरतें हो सकती हैं , वे भी पूरी हो ही रही हैं . फिर भी हममें   से ज्यादातर लोग खुश नहीं रहते। जरा-सी प्रतिकूल परिस्थिति आते ही वे दुखी  हो जाते हैं . हमारा मन यदि  कमजोर व बिखरा हो तो  दुखी होता रहता है . मन को समझना कठिन है .  जिंदगी में सब कुछ ठीक  होने पर भी कई बार मन दुःख  को तलाशता रहता है . दरअसल  मन कभी खाली नहीं रहता है . यदि हमने  मन को कहीं नहीं लगाया तो  मन खुद ही भूत या अतीत  में विचरण  करने लग जाता है । पहले कुछ बुरा  घटा हो तो  उसके बारे में सोचकर दुखी होने लगता है . सोचता है कि ऐसा नहीं हुआ  होता तो कितना अच्छा  होता . या फिर अपने से ज्यादा धनी , सुखी व सफल  लोगों, साथियों व रिश्तेदारों के बारे में सोचकर दुखी होने लगता है . अगर पास में धन-दौलत भी हो, तो भी मन किसी और छोटी बात को पकड़कर दुखी होने लगता है . मन अगर  कमजोर हो तो उसे  दुख में रहना अच्छा लगता है . मनोवैज्ञानिक द्रष्टि  से  देखें तो लगता है कि निराशा में व्यक्ति दुःख में भी सुख पाने लगता है . इससे बाहर आना बहुत जरुरी है .   
                    मन को ठीक रखने के लिए उसे प्रशिक्षण देने कि आवश्यकता होती है . इसके बिना वह  सकारात्मक नहीं हो पाता है । हमारा प्रयास यही होना चाहिए कि मन को प्रशिक्षित करें क्योंकि मन बिना सिखाए कुछ नहीं सीखता। इसके लिए अभ्यास की जरूरत होती है . अभ्यास से मन को वर्तमान में यानी यथार्थ में रखा जा सकता है , जो  बीत गया सो बीत गया . अब हमारे वश में कुछ नहीं है . जो घटित हो गया , हो गया . भाग्य का निर्णय नहीं बदला जा सकता है , लेकिन भविष्य हमसे उम्मीदें लिए सामने खड़ा होता है . हर दिन हमें कुछ नया करना है , कुछ अच्छा करना है .इसलिए जरुरी है कि  हमेशा मुस्कुराते रहें , सबके प्रति शुक्रिया का भाव रखें । इससे मन धीरे-धीरे सधने लगता है , उसे शांति मिलती है , आत्मविश्वास पैदा होता है ,  जीवन में सकारात्मकता आती है और समय  शीतल  होने लगता  है . इसलिए अपने मन को करें मजबूत , पत्थर की तरह  .

Friday, March 18, 2011

HOLI HAI !!! /....... बुरा न मानो होली है !!!

फैशन का टेंशन
जवाहर चौधरी
आलेख 
जवाहर चौधरी 


आज का फैशन सफलता की ऊंचाइयों को स्पर्श करते हुए कमर की नीचाइयों पर चमत्कारिक रूप से टिका हुआ है। कट-रीनाओं से लेकर मल्लिकाओं तक की कमर के अंतिम छोर पर एक रेखा होती है, जिसे सिनेमाई शहर में ‘एलओसी’ कहा जाता है। जैसे गरीबी की रेखा होती है, लेकिन दिखाई नहीं देती, वैसे ही फैशन की भी रेखा होती है, जो कितनी भी आंखें फाड़ लो, दिखाई नहीं देती है। एलओसी एक आभासी रेखा होती है, सुधीजन जिसकी कल्पना करते पाए जाते हैं। मैडम दुशाला दास का टेंशन इसी एलओसी से शुरू होता है।

दुशाला जी को चिंता तो तभी होने लगी थी, जब सुंदरियां मात्र डेढ़ मीटर कपड़े का ब्लाउज पहनने लगीं थीं। लेकिन अब डेढ़ मीटर कपड़े में दस ब्लाउज बन रहे हैं, तो वे टीवी खोलते ही तमतमाने लगती हैं। उस पर दास बाबू का दीदे फाड़ कर टीवी देखना उनकी बर्दाश्त के बाहर हो जाता है। मुए मर्द हय-हय, अश-अश करते बस बेहोश ही नहीं हो रहे हैं। जी चाहता है कि बेवफाओं को दीवार में जिंदा चुनवा कर अनारकली की वफा का हिसाब बराबर कर लें नामुरादों से। पिछले दिनों कट-रीनाओं ने असंभव होने के बावजूद जब एलओसी को नीचे की ओर जरा और खिसका दिया तो मैडम दुशाला को मेडिकल चेकअप के लिए ले जाना पड़ा।

              डाक्टर ने आदतन सवाल किया कि ‘आपको किस बात का टेंशन है?’ जवाब में उनके टेंशन का लावा बह निकला, बोलीं - ‘ हवा-पानी के असर से कभी-कभी पहाड़ भी भरभरा कर गिर जाते हैं। किसी दिन लगातार जीरो साइज होती जा रही कमर घोखा दे गई तो... टीवी वाले हफ्तों तक, बल्कि तब तक दिखाते रहेंगे तब तक कि देश  की पूरी एक सौ पंद्रह करोड़ जनसंख्या की दो सौ तीस करोड़ आंखें तृप्त नहीं हो जातीं ।  हमारी सरकार किसी ‘एलओसी’ की रक्षा नहीं कर पा रही है! क्या होगा देश का?’ 
               15 दिन के बेड रेस्ट और टीवी न देखने की हिदायत के साथ वे लौटीं। अभी हफ्ता भी नहीं गुजरा था कि एक दिन दास बाबू रात दो बजे फैशन-टीवी का पारायण करते हुए रंगी आखों बरामद हुए।यहाँ ‘एलओसी’ की समस्या नहीं थी , वह मात्र एक रक्षा-चौकी  में बदल गई थी ।  खुद दास बाबू इतने विभारे थे कि जान ही नहीं पाए कि मैडम दुशाला  ने दबिश  डाल कर उन्हें गिरी हुई अवस्था में जब्त कर लिया है । सुबह तक दुशालाजी की पाठशाला चली, किंतु वे इस प्रश्न का उत्तर नहीं पा सकीं कि दास बाबू आखिर उसमें देख क्या रहे थे!
               दरअसल दास बाबू को टीवी में जो दिख रहा था, उससे ज्यादा उत्सुक होकर वे ‘संभावना’ देख रहे थे। चैनल भी बार-बार ब्रेक से  टीआरपी को कैश कर रहा था और ‘कमिंग-अप’ की पट्टी लगा कर संभावनाएं बनाए हुए था। हर ब्रेक के बाद ‘संभावना’ बढ़ रही थी और दास बाबू को दास बनाती जा रही थी। वे सारांश पर आए कि संभावना से आदमी को ऊर्जा मिलती है।

                 दुशालाजी दुःखी इस बात से हैं कि टीवी वाले पत्रकार इतना खोद-खोद कर पूछते हैं कि जवाब देने वाला लगातार गड्ढ़े में धंसता चला जाता है, लेकिन इन देवियों से नहीं पूछते कि कमर को पासपोर्ट की तरह इस्तेमाल करना आखिर कब बंद करेंगी? संयोगवश एक दिन उनकी यह तमन्ना पूरी हो गई। टीवी के ‘बहस और चिंता’ कार्यक्रम में वे सवाल पूछ रहीं थीं कि आपको डर नहीं लगता, अगर कहीं सारा फैशन भरभरा कर गिर पड़े तो...। उपस्थित कट-रीनाओं में से एक ने जवाब दिया, ‘काश ऐसा होता ! ..... गिरने की संभावना फैशन का सबसे बड़ा कारण है, ...... लेकिन अब तक गिरा तो नहीं ..।’

                 ‘लेकिन टेंशन तो बना रहता है .  ऐसा फैशन आखिर किस लिए?’ वे बोलीं।‘ जिसे आप डर कह रही है, दरअसल वो अमूल्य संभावना है। फैशन का काम ही संभावना पैदा करना है।‘ दुशाला-दास’ होने में आज की दुनिया कोई संभावना नहीं देखती है। और जिसमें ‘संभावना’ नहीं होती वो भगवान के भरोसे होता है।’ दुशालाजी को जैसे डाक्टर से जवाब मिल गया। एक नए टेंशन के साथ वे लौट रही हैं।

Thursday, March 10, 2011

जाउं पिया के देस ओ रसिया मैं सजधज के..


                  
आलेख 
जवाहर चौधरी 

        अट्ठावन-उनसाठ का समय याद आ रहा है । इन्दौर ...... एक छोटा सा शहर , जिसमें घोड़े से चलने वाला तांगा और बैलगाड़ियां खूब थीं । सामान्य लोग पैदल चला करते थे । युवाओं में सायकल का बड़ा क्रेज था । सूट पहने, टाई बांधे सायकल सवार को देख कर लोग प्रभावित हुए बिना नहीं रहते । उस वक्त की फिल्मों में हीरो-हीरोइन भी सायकल के सहारे ही प्रेम की शुरुवात  करते थे । दहेज में सायकल देने का चलन शुरू हो गया था । दूल्हे प्रायः दुल्हन की अपेक्षा सायकल पा कर ज्यादा खुश  होते । सायकिल को धोने-पोंछने और चमकाने के अलावा पहियों में गजरे आदि डाल कर सजाने का शौक आम था ।


               बिजली सब जगह नहीं थी, दुकानों में पेट्रोमेक्स जला करते थे । सूने इलाके में स्थित हमारा घर कंदिल से रौशन  होता था । मनोरंजन के लिए लोग प्रायः ताश  पर निर्भर होते थे । कुछ लोग शतरंज  या चौसर  भी जानते थे । लेकिन इनकी संख्या बहुत कम थी । संगीत की जरूरत वाद्ययंत्रों से पूरी हो पाती थी जिसमें ढ़ोलक सबको सुलभ थी । पिताजी ने चाबी से चलने-बजने वाला एक रेकार्ड प्लेयर खरीद लिया था जिसे ‘चूड़ी वाला बाजा’ कहते थे । घर में बहुत से रेकार्ड जमा किए हुए थे । उन्हें बाजे का बड़ा शौक  था । एक डिब्बी में बाजा बजाने के लिए पिन हुआ करती थी । एक पिन से चार या पांच बार रेकार्ड बजाया जा सकता था । पिन वे छुपा कर रखते थे, मंहगी आती थी ।
उनदिनो एक गाना खूब बजाया जाता था -- ‘ चली कौन से देस गुजरिया तू सजधज के ........ जाउं पिया के देस ओ रसिया मैं सजधज के ..... ’ । मुझे भी बाजा सुनना बहुत भाता था । यह गीत तो बहुत ही पसंद था । लेकिन इजाजत नहीं थी बजाने की । इसलिए प्रतीक्षा रहती कि पिताजी के कोई दोस्त आ जाएं । दोस्त अक्सर शाम को आते और ‘बाजा-महफिल’ जमती । कई गाने सुने जाते लेकिन ‘ चली कौन से देस ...’ दो-तीन या इससे अधिक बार बजता ।

कुछ समय बाद रेडियो के बारे में चर्चा होने लगी । पिताजी के दोस्त बाजा-महफिल के दौरान तिलस्मी रेडियो का खूब बखान करते । एक दिन रेडियो आ ही गया । बगल में रखी भारी सी लाल बैटरी से उसे चलाया जाता । सिगनल पकड़ने के लिए घर के उपर तांबे की जाली का पट्टीनुमा एंटीना बांधा गया जो बारह-तेरह फिट लंबा था । रेडियो बजा तो  सब निहाल हो गए । उसकी आवाज बाजे से ज्यादा साफ और अच्छी थी । आवाज को कम-ज्यादा करने की सुविधा भी चौकाने  वाली थी । कई दिनों तक लोग रेडियो को देखने के लिए आते रहे । साफ आवाज सुन कर बूढ़े और महिलाएं समझतीं कि इस डब्बे में लोग बैठे बोल रहे हैं । रेडियो सायकल से बड़ा सपना बनने जा रहा था ।
जल्द ही रेडियो सिलोन में दिलचस्पी बढ़ी , खासकर बिनाका गीतमाला में । अमीन सायानी की आवाज में जादू का सा असर था, जब वे ‘भाइयो और बहनो’ के संबोधन के साथ कुछ कहते तो कानों में शहद  घुल उठती ।  बुधवार का दिन इतना खास हो गया कि इसे ‘बिनाका-डे’ कहा जाने लगा । शाम  होते ही लोग आने लगते । आंगन में बड़ी सी दरी बिछाई जाती जो पूरी भर जाती । उन दिनों पहली पायदान पर रानी रूपमति का गीत ‘ आ लौट के आजा मेरे मीत , तुझे मेरे गीत बुलाते हैं .....’ महीनों तक बजता रहा था । सायानी एक बार मुकेश  और एक बार लता मंगेषकर की आवाज में इसे सुनवाते । इस गीत के आते आते श्रोताओं का अनंद अपने चरम पर होता, वे झूमने लगते ।

इस बैटरी-रेडियो को भी बड़ी किफायत से चलाया जाता था क्योंकि बैटरी बहुत मंहगी आती थी । इसलिए अभी ‘चूड़ी वाले बाजे’ का महत्व कम नहीं हुआ था । याद नहीं कब तक ऐसा चला और बिजली आ गई ।  कुछ दिनों बाद ही बिजली वाला रेडियो भी ।
पहले ‘चूड़ी वाला बाजा’ बेकार हुआ , फिर बैटरी-रेडियो भी घटे दामों बाहर निकला । लेकिन इनकी  यादें हैं कि टीवी युग में भी अपनी जगह बनाए हुए हैं ।