Wednesday, November 23, 2011

* मैं पेड़ होना चाहता हूं .


           

आलेख 
जवाहर चौधरी 

 मुझे नहीं मालूम कि पेड़-पौधों का कोई परिवार होता है , जैसा कि हमारा होता है । यों देखा जाए तो शायद  होता होगा । बीज कैसे आते हैं ! अगर हम अपने जैसा हिसाब उन पर लगाएं तो लगता है पेड़ों के माता-पिता होते हैं, भाई-बहन होते हैं और पुत्र-पुत्री भी । पेड़ों की जाति होती है, उनका समाज भी होता होगा । जब इतना सब है तो उनमें संवाद होता होगा, उनकी कोई भाषा भी होगी, भावनाएं होंगी, उनके सपने भी होते होंगे, किसको पता ! लोग कहते हैं कि वे पेड़ों से बातें किया करते हैं । वे हमारे सुख-दुःख के साथी भी मानें जाते हैं । कई बार पेड़ों से नातेदारी होती है और निबाही भी जाती है । पेड़ों से शादियां करने की खबर आज भी सुनने में आती है । पेड़ कहीं पुरखों की भूमिका में होते हैं कहीं उनसे भी बड़े । उनकी पूजा की जाती है, आशीर्वाद  लिए जाते हैं, उनसे कुछ मांगा भी जाता है । मनुष्य के साथ पेड़ों का नाता जन्म के साथ झूले / पलने से आरंभ होता है और चिता तक बना रहता है । कबीर ने ‘देख तमाशा  लकड़ी का’ गा कर पेड़ों की महिमा का बखान किया ही है ।
                    मैं अपने सामने, आंगन में लगे एक पेड़ को बहुत देर से देख रहा हूं । मैंने ही लगाया था कहीं से ला कर , शायद खरीद कर । यह शुरू  से अकेला है , पता नहीं इसका कौन है ! न जाने इसके जन्मदाता कहां हैं, ... और बच्चे भी ! मौसम आते हैं और हर बार यह यांत्रिकता से हरियाता है , फूलता है, फलता है । फिर अकेला हो जाता है । मैं पूछना चाहता हूं इससे, कहां है तेरे पिता , कहां है पुत्र ? और एक निरर्थक कहानी सी धुंधियाने लगती है हवा में, जिसके आरंभिक और अंत के पृष्ठ कोई फाड़ ले गया है । उत्तर में वह पेड़ धरती और आकाश  को नाप देता है । हवा, प्रकाश  सबके नाम बता देता है। विश्वास -अविश्वास  के असंख्य पत्ते झरने लगते हैं । आज लिखते समय भी लग रहा है कि मैं अपने को बहला ही रहा हूं । बहलाने वाला ‘मैं’ और न बहलने वाला ‘मैं’, दो अलग इकाइयां खड़ी हो रही हैं । इन दोनों को महसूस करता एक तीसरा ‘मैं’ भी मौजूद है, लग रहा है खण्ड-खण्ड हो रहा हूं । हंसते, गाते, रोते, रीझते, खीझते मैं ही मैं हूं । ‘मैं’ की एक भीड़ होती जा रही है ... भीतर । अकेला पेड़ सामने हैं लेकिन एक जंगल पसर गया है अंतस में । अपने ही जंगल में भटकता, भ्रमित होता अक्सर बेचैन महसूस करता हूं । अकेले में अपने से ही डरता हूं और ऐसी जगह भाग जाना चाहता हूं जहां मेरा ‘मैं’ न हो । न मेरी धड़कनें, न सांसें, न स्मृतियां, न दुःख । जैसे सन्यासी त्याग कर चले जाते हैं संसार को कंदराओं में , न लौटने के निश्चय  के साथ। किसी सूनी घाटी में जैसे एक पेड़ खड़ा हो जीवित, निर्जीव सा ।
                  मैं पेड़ होना चाहता हूं , ताकि जब लौटूं इस संसार से स्मृतियां साथ न हों , न शिकायतें  किसी से, और न हिसाब लिए-दिए का । क्योंकि शायद  पेड़ों की स्मृतियों में कोई नहीं होता । वे बिना यादों के आते हैं और सब भूल कर जाते हैं ।

Wednesday, October 19, 2011

एक लापरवाह कौम की भाषा चेतना !


                             

आलेख 
जवाहर चौधरी 

केन्द्र सरकार की चिंता यदि यह है कि राष्ट्र्भाषा हिन्दी को क्लिष्ट और लगभग अव्यवहारिक अनुवादों से बाहर निकाल कर सरल व सुबोध बनाया जाए, तो हाल ही में राजभाषा विभाग द्वारा प्रशासनिक  विभागों को जारी किए गए उसके परिपत्र का स्वागत किया जाना चाहिए । कोई भी भाषा जनस्वीकृति और लोकव्यवहार से विकसित और समृद्ध होती है । किसी जमाने में संस्कृतियां स्थानीय होती थीं । भारत में तो कहा ही जाता था कि ‘चार कोस में बदले पानी और आठ कोस में बानी’ । यातायात और संचार साधनों के विकास से संस्कृतिक आदान-प्रदान सुगम होता है, और शब्दों  का लेन-देन निर्बाध । जिन देशों  में विदेशी  ताकतों का शासन  रहा हो वहां सत्ता पक्ष का की भाषा के शब्द  तेजी से फैल कर स्थानीय भाषाओं में और लोकव्यवहार में अपनी जगह बना लेते हैं । यह स्वाभाविक प्रक्रिया है । यही कारण है कि हिन्दी में अरबी, फारसी, उर्दू और अंग्रेजी के शब्द स्वीकृत हैं । शासकीय  कामकाज के स्तर पर अनुवादक जिस हिन्दी का प्रयोग करते हैं वो प्रायः जटिल और हास्यास्पद हो जाती है । हिन्दी सरल इसलिए भी है कि इसमें भारत की अनेक भाषाओं, बोलियों के शब्द सम्मिलित हैं । इसलिए मराठी, पंजाबी, बंगला , उर्दू तमिल, तेलुगू आदि बोलने वालों को भी बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के हिन्दी में  अपनेपन के अंश  मिल जाते हैं । भाषा का यही गुण उसे समृद्ध और दीर्घजीवी बनाता है । 
                        कुछ शुद्धतावादी भाषा-चिंताकारों को लगता है कि अंग्रेजी के शब्द को शामिल  करने की सरकारी इजाजत से भाषा मर जाएगी या हिन्दी कुछ दिनों में हिंग्लिश हो जाएगी । वे मानते हैं कि किसी यह अन्तराष्ट्रीय षड़यंत्र के तहत हो रहा है । माना कि ऐसा हो रहा है तो क्या हम किसी समुदाय को उसके भाषा प्रचार या विकास से रोक लेंगे ? किसी भाषा के विस्तार में कई चीजें काम करती हैं, जिसमें भाषा का अपना आभामंडल बहुत प्रभावी होता है । सरकार ने कहीं आदेश नहीं निकाला है कि हम अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाएं । बल्कि विशेषज्ञों  की राय तो यही है कि प्रथमिक शिक्षा  मातृभाषा में दी जाना चाहिए । लेकिन हो क्या रहा है ? हिन्दी स्कूल सरकारी हैं और लगभग खाली पड़े हैं । निजी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम है और जगह नहीं है । हमारे अंग्रेजी आतंक के कारण गली गली में अंग्रेजी माध्यम की दुकानें चल रही हैं ! पिछले छः दशकों से लगातार अंग्रेजी के शब्द लोकव्यवहार में आ रहे हैं । यह एक कड़वा सच है कि देश अपनी अगली पीढ़ी इंग्लिश मीडियम स्कूलों में गढ़ रहा है । खुद भाषा के चिंताकारों में आत्मविश्वास  नहीं है कि इनमें से अधिकांश अपने बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़वा रहे हैं । माना कि शिक्षा  और करियर की विवशता के चलते उन्हें ऐसा करना पड़ रहा है लेकिन दैनिक व्यवहार में अंग्रेजी के आग्रह की प्रवृत्ति किस मंशा  से पाले हुए हैं वे !? इंग्लिश मीडियम स्कूल के एक अध्यापक  ने बताया कि स्कूल परिसर में हिन्दी बोलने पर प्रतिबंध और दंड के प्रावधान से डर था कि पालक इसका विरोध करेंगे । किन्तु आश्चर्य  कि इसी वजह से उनका स्कूल प्राथमिकता में आ गया ! जब कोई कौम अपनी भाषा को लकर खुद सचेत नहीं है और उसमें पल रहे भाषा-चिंताकार भी नकली हों तो अन्य चीजों की भांति भाषा भी भगवान भरोसे ही रहेगी । भाषा के जरिए विशेष  हो जाने की मंशा  को अधिक दिनों तक छुपाना संभव नहीं दिखता है । 
                                     केवल स्कूलों की बात ही नहीं है, पत्र-पत्रिकाओं और किताबों की ओर देखें । 60 करोड़ हिन्दी जानने वालों के देष में हिन्दी की किताबों के संस्करण एक हजार प्रतियों से कम के हो रहे हैं । कहने को षिक्षा का प्रतिषत बढ़ा है लेकिन हिन्दी के पाठक कहां हैं ? मात्र दो प्रतिशत अंग्रेजी जानने वालों के बीच अंग्रेजी की किताबें लाखों की संख्या में बिक जाती हैं ! 
                               क्यों नहीं समस्या की जड़ की ओर ध्यान दिया जाता है । स्कूलों से संवाद हो और हिन्दी के प्रति उनके नजरिए को बदलने का प्रयास किया जाए । भले ही पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी हो लेकिन हिन्दी को असफलता से जोड़ कर देखने-दिखाने की प्रवृत्ति पर रोक लगे । स्कूल की तमाम दूसरी गतिविधियां हिन्दी में संचालित हों और बच्चों को अपनी राष्ट्र्भाषा के निकट आने में मदद की जाए । देश हर एक को अपनी बात कहने का अधिकार देता है लेकिन राष्ट्र्भाषा को अपमानित करने की इजाजत तो किसी को नहीं होना चाहिए । प्रथमिक स्तर की शिक्षा  के लिए पचास हजार से एक लाख रुपए तक की फीस वसूलने वाले स्कूलों को सरकारी अनुदान की जरूरत भले ही न हो पर उन्हें शासकीय  आदेश तो मानने ही होंगे । 

                                                                          ---

Monday, September 19, 2011

वही नहीं थे महफिल में , जिनसे चिराग रौशन रहे ...


                  
आलेख 
जवाहर चौधरी 

         हाल ही में एक अखबार ने इस बात के लिए जश्न  मनाया कि उसकी प्रसार संख्या में काफी इजाफा हुआ है । पाठक संख्या , जैसा कि उनका अनुमान है , दुगनी हो गई है । अखबार के अनेक संस्करण निकाले जा रहे हैं । पृष्ठों की संख्या भी पहले से अधिक है । बरसों पुराने , बूढ़े हो चुके पाठकों के अलावा नए और युवा पाठक भी बड़ी संख्या में जुड़ चुके हैं । ऐसे लेखक जिनकी पहचान राष्ट्रिय  स्तर पर है , अब इस अखबार के लिए लिख रहे हैं । यही नहीं अखबार का दावा है कि वह नए लेखकों और स्थानीय भाषा के विकास के मामले में उदार है । पाठकों को अच्छी और पठनीय सामग्री मिले इसके प्रति गंभीरता का उसका दावा हमेशा  नारे की तरह होता है ।
                 सफलता का यह जश्न  एक बड़े होटल में अयोजित था । दूसरे दिन बड़े बड़े फोटो तीन पेज में लगा कर पाठकों को इसकी जानकारी दी गई । अतिथियों में सारे लोग विज्ञापनदाता थे । यही नहीं हरएक फोटो के नीचे लिखा हुआ था कि ये साहब फलां कंपनी के हमारे विज्ञापनदाता हैं । कई विज्ञापन एजेन्सियों के विकास पुरुष महामहिम की सी मुद्रा में दिखाए गए थे । अखबार का सारा कुछ विज्ञापन के आसपास का था और उनके बीच अखबार के प्रतिनिधि पुलकित और बिछे जा रहे दिख पड़ रहे थे ।
                   सवाल यह है कि जब एक अखबार अपनी सफलता का जश्न मनाता है तो पाठकों को क्या यह सन्देश  देना भी जरूरी है कि उनके लिए केवल विज्ञापनदाता ही सबकुछ हैं ! अखबार में विज्ञापन ही होते हैं क्या ! क्या वे जानते हैं कि ज्यादातर लोग पूरे पृष्ठ पर छपे विज्ञापन को देख कर कुपित होते हैं और प्रायः बिना पढ़े उसे पलट देते हैं । जैसे कि टीवी पर विज्ञापन आते ही नब्बे प्रतिशत  लोग म्यूट कर देते हैं । माना कि अखबार चलाने वालों के लिए विज्ञापनदाता मांईं-बाप होते हैं लेकिन अन्य महत्वपूर्ण घटकों की उपेक्षा करना क्या सन्देश  देता है । अखबार के वे लेखक क्यों नहीं थे जश्न में जिन्हें पढ़ने के लिए पाठक अखबार खरीदता है । वे संपादक, पत्रकार और कालमिस्ट भी नजर में नहीं आए जिनसे अखबार इतना लोकप्रिय हो सका ! प्रायः हर अखबार में लिखने वाले स्थायी होते हैं भले ही वे उसमें नौकरी नहीं करते हों । वे पाठकों की पसंद होते हैं और अखबार की प्रतिष्ठा भी बढ़ाते हैं । लेकिन जब जश्न मनाना हो , सफलता प्रदर्षित करना हो तो इन्हें अनदेखा करने की प्रवृत्ति आम है । पाठकों से मालिक क्या अपनी यह कृपणता अधिक दिनों तक छुपा पाएंगे ?

Thursday, July 28, 2011

* सपने देखने का समय ---


आलेख 
जवाहर चौधरी 


                इच्छाएं , अभिलाषाएं या सपने ही हमारे होने को जीवन के दायरे में लाता है । बिना सपनों के मनुष्य-जीवन का आरंभ ही कहां होता है ! मात्र सांसें लेने और भूख-प्यास मिटा लेने का नाम जीवन तो नहीं है । पिछली पीढ़ी यानी माता-पिता, शिक्षक , महापुरूष आदि युवा आंखों में सपने इसलिये बोते हैं कि हाड़ मांस के इन तरूवरों में सार्थकता के पल्लव फूटें । सपनों के बिना भविष्य संदिग्ध है फिर चाहे वो व्यक्ति का हो, समूह का हो या फिर राष्ट्र् का ही क्यों न हो ।
क्रांतिकारी कवि पाश  सपनों को यानी अभिलाषाओं , इच्छाओं को सबसे जरूरी मानते हैं । उन्होंने लिखा है --

मेहनत की लूट ... सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार ..... सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी-लोभ की मुट्ठी .... सबसे खतरनाक नहीं होती
बैठे बिठाए पकडे़ जाना ..... बुरा तो है 
पर सबसे खतरनाक नहीं होता 
सबसे खतरनाक होता है ....
मुर्दा शांति  से भर जाना  
न होना तड़फ का ... सब सहन कर जाना
सबसे खतरनाक होता है 
हमारे सपनों का मर जाना

          जब सपने मरते हैं तो सभ्यता पर विराम लगने लगता है । सपने सभ्यता के पहिये हैं । अभिलाषा ही हमारे उद्देश्य व लक्ष्य तय करती है । कहते हैं - जहां चाह होती है , वहां राह होती है । यदि चाह ही नहीं है तो राह हो भी तो नहीं के समान है । गांधीजी ने मन , वचन और कर्म का महत्व बताया था । कोई बात सबसे पहले मन में आना जरूरी है , इच्छा करना आवश्यक  है, उसके बाद ही वो वचन या कर्म में बदलती है । जब कामना ही नहीं होगी तो कर्म कैसे होगा । ईश्वर  कहता है - आरजू कर , हक जता , हाथ बढ़ा और ले जा ।
विद्यार्थी जीवन सपने देखने और उन्हें सच करने के लिये स्वयं  को तैयार करने का समय होता है ।  वो जवानी जवानी नहीं है जिसकी आंखों में सपने और दिल में हौसले नहीं हों । दुष्यंत कुमार की पंक्तियां किसे याद नहीं है -
कौन कहता है आसमान में सूराख हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों 
           सपना ऐसा ही होना चाहिये - आसमान में सूराख करने का और हौसला भी उतना ही बुलंद । हमारे पूर्व राष्ट्र्पति डा . अब्दुल कलाम देश  के युवाओं को सिर्फ एक ही बात कहते हैं कि सपने देखो , बड़े सपने देखो , इच्छाएं-अभिलाषाएं रखो और उन्हें पूरा करने की चुनौती स्वीकारो । आज देश  युवाओं से सपने देखने की मांग कर रहा है ।
इस शेर  को भी हमने कई बार पढ़ा-सुना होगा -
खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले
खुदा बंदे से पूछे .....बता तेरी रजा़ क्या है 

Wednesday, July 20, 2011

* Mumbai terrorist attacks / कायर आतंकी हमले करते हैं और समर्थ सदा शांतिवार्ताएं !!

                
आलेख 
जवाहर चौधरी 
 बम विस्फोट के तत्काल बाद लहुलुहान जनता पर        धमाकेदार बयानों का हमला हुआ । लोग पहले की अपेक्षा दूसरे हमले से ज्यादा घायल हुए और उनका ध्यान आतंकवदियों से कुछ देर के लिए हट गया । पहले हमलावर गायब हो गए और दूसरे सुर्खियों में आ गए, दोनों की इच्छा पूरी हुई । सुर्खियां लोकतंत्र के बाजार में बड़ी पूंजी है, चुनाव ज्यादा दूर नहीं हैं । नए सूट आदि सिलवा कर वे अब शांतिवार्ता के लिए तैयार होंगे । परिधान अच्छे और नए हों तो हमारा मन प्रसन्न और सामने वाला शांत  रहता है ।  शांतिवार्ता के पहले एक वातावरण बनाना पड़ता है । शांतिवार्ता करना मात्र कबूतर उड़ाना नहीं है सुबह सुबह , वातावरण बनाने  के लिए मुर्गे भी उड़ाना पड़ते हैं रात को । वे लोग धमकों से आतंक का वातावरण बनाते हैं और हम शांतिवार्ता करके चट-से उस पर पानी फेर देते हैं । शांतिवार्ता दिमाग का खेल है और दुनिया जानती है कि हमारे पास दिमाग है । हमने दुनिया को हिसाब लगाने के लिए शुन्य  दिया और खुद धीरे धीरे एक सौ इक्कीस करोड़ हो गए । एक धमाके में वे सौ-दो सौ मारते हैं जबकि हमारे यहां मात्र पांच मिनिट में दो सौ से ज्यादा आबादी बढ़ जाती है । हमारा सिद्धान्त है कि कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो तुरंत दूसरा गाल आगे कर दो । सरकार के पास अपना पक्ष मजबूत करने के लिए अब दो सौ बयालीस करोड स्वदेशी  गाल हैं, ‘मेड इन इंडिया’ । और क्या चाहिए अहिंसा समर्थक सरकार को ! राज की बात बतांए ? बिगड़े हुओं से बार बार शांतिवार्ता करो तो वे पागल हो जाते हैं और फिर अमेरिका जैसे म्यूनिसपेलिटी वाले रैबिज से बचाव के नाम पर उन्हें आसानी से मार भी देते हैं । हींग लगे न फिटकरी और रंग भी आए चोखा । अहिंसक के अहिंसक रहे और निबटा भी दिया । अपनी अपनी राजनीति है प्यारे । है कि नहीं ? 
            जनता को समझना होगा कि शांतिवार्ता हमारी सर्वाधिक महत्वपूर्ण विदेश नीति है । हमने युद्ध से ज्यादा शांतिवार्ताएं लड़ी हैं, अंदर भी और बाहर भी । सरकार एक बार शांतिवार्ता पर उतारू हो जाती है तो फिर अपने आप की भी नहीं सुनती है । अभी एक बाबा से शांतिवार्ता की, मात्र दो दिन में उनकी उमर दस साल बढ़ गई और समर्थक चौथाई  रह गए । इसके बाद सामने वाला हमले भले ही करता फिरे , युद्ध नहीं कर सकता । दरअसल इसमें हमारी कूटनीति  है, सीमापार वाले शांतिवार्ताएं करना चाहते नहीं, क्योंकि उन्हें वार्ता करना आती नहीं है और हम उन्हें शांतिवार्ता के मोर्चे पर बुला कर बार बार पटकनी मारते हैं । अभी देखो, इधर धमाके हुए उधर फट्ट-से हमने चेतावनी दे दी कि शांतिवार्ता पर धमाकों का कोई असर नहीं होगा । सुनते ही उनको सांप सूंघ गया होगा । पिछली बार उन्होंने छाती ठोक के सबूत मांगे थे , हमने ढ़ेर सारे दे दिए, आज तक उसकी छानबीन में लगे हैं और माथा ठोक रहे हैं । 
कायर हमेशा  आतंकी हमले करते हैं और समर्थ सदा शांतिवार्ताएं । जाहिर है कि हम समर्थ हैं ।

Monday, July 11, 2011

.. चला गया वह ....प्यार भरे दिल के साथ ... बिना कुछ कहे-सुने .

भले तुम दूर चले गए हो फिर भी मेरे साथ ही हो
तुम्‍हारे प्‍यार की सांसों को महसूस करती हूं मैं
उदास उसांसों के साथ घिरती है रात
और हम दोनों के बारे में बातें करती है
जो कुछ भी था तुम्‍हारे और मेरे बीच इस क़दर शाश्‍वत

कि अलविदा के बारे में हम कभी सोच भी नहीं सकते
तुम इस समंदर और उस सितारे के बीच रहोगे
रहोगे मेरी नसों के किनारों पर
कुछ मोमबत्तियां जलाऊंगी मैं और पूछूंगी ईश्‍वर से
कब लौटकर आ रहे हो तुम...

[ कवि श्री गीत चतुर्वेदी द्वारा किया गया अनुवाद अंश .]

Tuesday, July 5, 2011

* जल्दी से बुड्ढा-डोकरा हो जाए !!


आलेख 
जवाहर चौधरी            

  बहुत वर्ष हुए नानी को सिधारे । जब भी मुलाकात होती थी, खूब लाड़ करती थीं और आशीष  देती थीं कि ‘जल्दी से बुड्ढा-डोकरा हो जाए ’ । तब इतनी तो समझ थी ही कि बुड्ढा-डोकरा होना कोई अच्छी बात नहीं है । खुद नानी इस हाल में आश्रित सी थीं तो फिर ये कैसा आशीर्वाद  ! मैं विरोध जताता कि नानी ऐसा मत बोला करो । जवाब में वे कहतीं कि ‘अभी नहीं समझेगा तू ’ ।

            आज जब साठवां गुजर रहा है तो छः दशकों  की बीती नजरों के सामने दौड़ जाती है । कितना लंबा वक्त लगा यहाँ तक पहुंचने में और किस तरह ! वो भी देखना पड़ा जिसकी कल्पना नरक में भी नहीं हो सकती । लेकिन उस सब का जिक्र नहीं करूंगा । क्योंकि दुःख की दुकान नहीं होती, दुःख का बाजार नहीं सजता और न ही किसी के लिए दुःख का कोई मूल्य होता है । लेकिन भुगतना तो पड़ता ही है .जीवन संघर्ष में बिना जख्मी हुए कोई बुड्ढा-डोकरा नहीं हो सकता है . हालांकि कहा जाता है कि सुख बांटने से बढ़ता है और दुःख बांटने से घटता है । लेकिन आज के भागते युग में किसके पास समय  है । रिश्ते  अजब गणितों में बदल गए है । अगर आप सुखी हैं तो दुनिया दुःखी है और इसका विपरीत भी होता है  । यानी दुनिया सुकून से है यदि आप दुःखी हैं । इन हालात में कौन किसका दुःख बांटने खड़ा हो पाता है, यदि मजबूरी न हो । यों देखा जाए तो कोई सुखी नहीं है । हरेक के जीवन में दुःख हैं, इसलिए किससे आशा कीजिये  । इसलिए बुड्ढा-डोकरा हो जाना सुकून की बात भी है . बहुत कम लोग होते हैं जो समय की गुफा के सामने अलीबाबा होने का अवसर पा जाते हैं । नानी के आशीषों  का मतलब और गालिब का यह शेर  अब समझ में आ रहा है । 



कहूं किससे मैं कि क्या है, शब् -ए-गम बुरी बला है
मुझे क्या था मरना, अगर एक बार होता 

Thursday, May 26, 2011

जाहिर है तेरा हाल सब उन पर , कहे बगैर.


                        
आलेख 
जवाहर चौधरी 

     कल मैं बहुत देर तक गेट पर इंतजार में खड़ा रहा कि कोई निकले तो उसे चिठ्ठियां दे दूं कहीं लाल डिब्बे में डालने के लिए । निकले कई नौजवान पर बाइक पर सवार , लगभग उड़ते हुए । कोई पैदल या सायकल पर नहीं निकला । लगा जैसे नौजवानों ने पैदल चलना ही छोड़ दिया है । सायकल तो खैर अब शान  के खिलाफ है । फटी जीन्स फैशन  हो सकती है लेकिन सायकल नहीं । 
                  मुझे याद आया पचास वर्ष पहले का समय , तब जनसंख्या कम थी साधन सुविधा भी न्यून थे । लेकिन किसी वरिष्ठ  नागरिक को किसी काम के लिए ज्यादा देर तक बाट जोहने की जरूरत नहीं पड़ती थी । घरों में बच्चे खूब थे , किसी को भी पुकारो और काम कह दो , हो जाता था । हम लोग ही दौड़ कर काम कर आते थे । इसमें कुछ भी विशेष  नहीं था । अब घरों में एक-दो बच्चे हैं , जाहिर है बड़े कीमती हैं । इतने कि दूसरे इनसे ‘हेल्लो’ कर सकते हें कोई काम नहीं कह सकते । खुद मां-बाप भी उनसे काम नहीं लेते हैं , करियर का ध्यान है । अब बच्चे पैदा होते ही कुछ बनाए जाने का ‘कच्चा सामान’ हो जाते हैं । उनका वक्त मां-बाप के वक्त से ज्यादा कीमती है ।
                शाम  को मित्र आए , चर्चा में उन्हें दुखड़ा रोया । वे बोले - चिठ्ठी तो ठीक है अब दवा ला देने वाला भी नहीं मिलता है यार ।
             ‘ फिर तुम क्या करते हो ? ’ मैंने पूछा ।
             ‘‘ इंतजार करता हूं । तुम भी इंतजार किया करो । इंतजार करने का मजा कुछ और होता है । समझे ?
और गालिब के इन शेरों पर गौर कीजिए जरा --
गालिब , न कर हुजूर में तू बार बार अर्ज 
जाहिर है तेरा हाल सब उन पर , कहे बगैर

काम उससे आ पड़ा है, कि जिसका जहान में
लेवे ना कोई नाम, सितमगर कहे बगैर 

Friday, May 6, 2011

अधिकारी आवास परिसर में महंगाई !!




आलेख 
जवाहर चौधरी         

       उन्होंने रविवार सुबह साढ़े दस बजे चाय पर आमंत्रित किया । मेरे पुराने परिचित, जो मित्र ही होते यदि नौकरी के चलते बाहर चले नहीं गए होते । किस्मत जोरदार थी उनकी कि बैंक में अधिकारी लगे । बैंक का अधिकारी होना उनदिनों हमारे तरफ वैसी घटना थी जो यदाकदा ही घटित होती है । पहली नियुक्ति छोटी जगह मिली, लेकिन बंगला बैंक ने उपलब्ध कराया । चपरासी पूरे समय घर के लिए नहीं था किन्तु काफी समय के लिए होता था ।शुरुवात  में दो चार बार फोन पर इन सब आनंद-मंगल की बातें हुई, बाद में रुकावटें आने लगीं । शादी  बड़े घर में ही होना थी क्योंकि उन दिनों भी अधिकारी-लड़के बड़े घर वाले ही अफोर्ड कर पाते थे । पत्नी आई तो अपने साथ पूरा संसार ही ले आई । इसके बाद वे यहां-वहां स्थानांतरित होते रहे । उनकी खबर मिलना बंद हो गई । 

                अर्से बाद हमारे शहर  में बड़े अधिकारी के रूतबे के साथ उनका तबादला हुआ । बड़े नगरों में प्रायः बैंकों के अपने आवासीय परिसर होते हैं । जहां तमाम बैंक अधिकारी निवास करते हैं । परिसर का रखरखाव बैंक के जिम्मे है सो सुन्दर बगीचा और सीमेंट के प्री-कास्ट रंगीन ब्लाक्स से सज्ज्ति ऐसा मनोरम वातावरण कि माहल्ले में रहने वाले मित्र की हैसियत गिर कर सुदामा-सुदामा याद करने लगे । मुख्य द्वार पर आलीशान  शिलालेख, जिस पर पीली घातु से उभरे अक्षरों में लिखा है ‘फलांबैंक अधिकारी आवास परिसर’ । बगल के झरोखे युक्त शेड  में वर्दीधारी चौकीदार  जिसके हाथ में परिसर की धाक बढ़ाती बंदूक । मंगते-भिखारी, सेल्समेन, गाय-कुत्ते वगैरह की तो बात ही क्या , स्कूटर से आने वाले आगंतुक को भी बताना होता है कि उसे किन ‘साहब’ से मिलना है और नाम व स्कूटर का नंबर दर्ज करने के बाद अंदर जाने की इजाजत होती है ।
मैं ठीक साढ़े दस बजे पहुंचा , औपचारिक बाधाओं को पार करता उनकी नेमप्लेट के नीचे लगी कालबेल का बटन अभी दबाया ही था कि एक झक्क सफेद पामेरेरियन भौंकता जाली के पीछे से पंजा मारने लगा । आसपास खिड़कियों से कुछ जोड़ा मादा निगाहें मुझ पर गड़ीं लेकिन जल्द ही हट भी गईं । जब पामेरेरियन पर्याप्त भौंक चुका , अंदर से एक रौबदार जनाना आवाज ने उसे रुक जाने का आदेश  दिया और वह ऐसे रुका जैसे बैटरी चलित खिलौने का स्विच-आफ कर दिया गया हो । दरवाजा खुलने पर मैंने अपना नाम बताया बदले में उन्होंने चौकानें  और प्रसन्न होने के मिश्रित भाव से स्वागत किया । ये ‘भाभीजी’ हैं, इनसे पहले दो-तीन बार संक्षिप्त मुलाकातें हुई हैं । बोलीं - ‘‘ ये बोले थे कि साढ़े दस का टाइम दिया है पर वो टीचर हैं, ग्यारह से पहले नहीं आएंगे । ’’
इसका क्या जवाब हो सकता था ! उफ् ! टीचर की इमेज !
‘‘ इसलिए मैं भी दूसरे काम निबटा रही थी, आज संडे है ना बड़ा बीजी दिन होता है । ’’
‘‘ सारी ...., आगे से टीचरों की इमेज का ध्यान रखूंगा । ’’
‘‘ अरे नहीं , आप बैठिए न , आते ही होंगे । ’’
‘‘ कहीं गए हैं ?!!’’
‘‘ आज संडे है ना , सब्जी लेने मंडी जाते हैं । ’’

                यहां सब अधिकारी हैं, सब के पास कार, सब समृद्ध, सबके पर्स में बड़ा वेतनमान, सबके बड़े बंगले, बड़े बैठक कक्ष, माटे मोटे बड़े सोफे, बड़े एलसीडी, कोने में निजी बार से झांकती बड़ी बड़ी बोतलों के सुन्दर कैप और घूमते पंखों के बीच अटल एसी । हुसैन-बेन्द्रे की पेटिंग्स और किसी अनचीन्हे राजे-रजवाड़े का एक पोट्रेट  जो शायद  अब बैठक में ‘साहब’ के पुरखे की भूमिका अदा कर रहा है ।
‘‘ यहां सब्जी वाला नहीं आता है ? ’’
‘‘ आता तो है, पर ये लोग तो लूटते हैं ! भाई साब कोई सब्जी आठ-दस रुपए पाव से कम नहीं मिलती है । ’’
‘‘ आजकल मंहगाई बहुत बढ़ गई है । ’’
‘‘ हमें भी ऐसा ही लगता था । पर पता चला कि मंडी में बड़ी सस्ती है । ’’
‘‘ अच्छा !! ’’
‘‘ संडे छुट्टी रहती है तो चार-पांच आफिसर एक कार में चले जाते हैं । ’’
‘‘ इससे तो पेट्रोल  की बचत होती है । ’’
‘‘ हाँ  , और सब्जी भी थोक के भाव ले आते हैं । ’’
‘‘ थोक के भाव !!!’’
‘‘ भाई साब एक बड़ा सा कद्दू बीस रुपए में मिल जाता है, कम से कम पंद्रा किलो का ....’’
‘‘ सिर्फ बीस रुपए में !!!’’ हमने शिष्टाचारवश  चकित होते रहना जारी रखा ।
‘‘ हां , ... और टमाटर , गोभी, बैंगन, लौकी सब टोकरी से खरीद लो । धनिया कितना मंहगा है ! वहां दस-बारह किलो की एक पोटली धनिया सात-आठ रुपए में मिल जाता है । ’’
‘‘ अच्छा !!!’’
‘‘ बस घर ला कर बराबर बाँट  लो आपस में । हप्ते भर की सब्जी हो जाती है मजे में । ’’
‘‘ सो तो ठीक है भाभीजी , लेकिन अगर सब लोग ऐसा करेंगे तो फेरीवालों का घर कैसे चलेगा । उनके लिए भी तो वही मंहगाई है जो हमारे लिए है । ’’
‘‘ अब इतना सोचने लगे भाई साब तो चल चुकी जिन्दगी । ’’
दरवाजे पर हलचल हुई , मित्र कद्दू का एक बड़ा सा पीस और थैला भर सब्जी लिए प्रवेश  कर रहे थे । बोले - अरे ! तुम आ गए !

Thursday, April 21, 2011

* हम भ्रष्ट जनम जनम के .....



आलेख 
जवाहर चौधरी              

            औरों की तरह मैं भी चाहता हूं कि भ्रष्टाचार  समाप्त हो । भारत एक पवित्र और न्यायपूर्ण व्यवस्था वाला देश  बने । लेकिन क्या ऐसा संभव है ? हमारे यहां जनता के मनोविज्ञान में भ्रष्टाचार के जिवाणु हैं और उन्हें पता ही नहीं है । कहा जाता है कि आदमी को भगवान से डरना चाहिए । कोई देख रहा हो या न देख रहा हो पर भगवान तो देख ही रहा होता है । लेकिन क्या इसका कुछ असर होता है ! हम क्या समझते हैं अपने इस भगवान को ? हर श्रद्धालू अनेक तरह के उपाय कर , पूजा-पाठ कर , भेंट, उपहार, प्रसाद आदि चढ़ा कर अपनी नैतिक-अनैतिक मनोकामना पूरी करने की प्रर्थना या मांग करता है । यहां तक कि डाका डालने या चोरी करने के पहले लोग पूजा करते हैं और सफल होने पर भेंट चढ़ाते हैं । ईश्वर  और इन मंगतों के बीच दलालों की परंपरागत व्यवस्था होती है । जो भ्रष्ट  कामनाओं को सिद्ध करने में सहायता करते हैं । धर्म मनुष्य  के लिए सर्वाधिक महत्व का माना गया है लेकिन धर्म के मर्म को समझने की अपेक्षा हम उसे अपने पक्ष में साधने की युक्ति में लग जाते हैं । 

                                   नौकरी चाहिए, परीक्षा में पास होना है, धन प्राप्ति या विदेश  यात्रा करना है, सबके उपाय हैं । बात बात पर हमारे लोग ‘मानता/मन्नत ’ मान लेते हैं ! कोई चादर चढ़ा रहा है, कोई मुर्गा-बकरा , कोई कथा-भागवत करवा रहा है तो कोई कन्याएं जिमवा रहा है । व्यापार में दिनभर बेईमानी करने वाला रात को प्रसाद चढ़ा कर ईश्वर  को रिश्वत  देता है और संतुष्ट  हो जाता है । रिश्वत  देने के बाद उसे ईश्वर  का डर नहीं लगता बल्कि ईश्वर  को वह अपने चिराग का जिन्न समझने लगता है । कितने अफसोस की बात है कि इस प्रवृत्ति को हम मान्य पूजा पद्दति की तरह स्वीकार करते हैं । आम धारणा है कि   ईश्वर  की जेब गरम कीजिए वो आपकी मदद करेगा ।  जिन दिमागों में कुछ दे कर प्राप्त करने की धारणा जमी हुई है वे भ्रष्टाचार के खिलाफ कैसे लड़ेंगे ?!

                               अपने आचरण , अपनी ईमानदारी पर किसी को भरोसा नहीं है । कोई नहीं मानता कि अच्छा आचरण करूंगा तो ईश्वर  मेरी मदद करेगा । बड़े बड़े सितारे हों , समर्थ-समृद्ध हों या बुद्धिजीवी , सबकी अंगुलियों में चमत्कारी नगीनों की अंगूठी नजर आ जाएगी । क्या ऐसे भाग्यवादियों से भ्रष्टाचार के विरुद्ध कुछ सार्थक करने की उम्मीद की जा सकती है ? जनता मनोवैज्ञानिक रूप से भ्रष्ट है । उसे षड्यंत्र  पूर्वक स्वयं पर अविश्वास  करने का प्रशिक्षण  दिया गया है । लोग चमत्कार की आशा  में अपनी ओर देखना भूल गए हैं । ऐसे लोगों की फौज कितनी ही बड़ी क्यों न हो क्या उससे भ्रष्टाचार मिटाया जा सकेगा ?

कबीरा कहे ये जग अंधा.......

                                             मित्रो, ...........   नेट पर तफरी करते हुए यह फोटो मुझे दिखाई दे गया . हमारे बहुत से ऐसे पूजा स्थल हैं जो सड़क किनारे दो पत्थरों को सिंदूर पोत कर तैयार किये गए हैं . यहाँ कुत्ते बैठे पाए जाते हैं , यहाँ तक कि इन जगहों पर वे अक्सर टट्टी - पेशाब भी करते रहते हैं लेकिन कोई ध्यान  नहीं देता हैं . आम तौर पर हिन्दू भगवान से मांगने जाता है और उसके बाद भूल जाता है . यहाँ देखिये ... किसकी आराधना हो रही है  !!!!!!!

आलेख 
जवाहर चौधरी 

Friday, April 15, 2011

मुर्गियां , जो अंडा देना बंद कर देती है .........


            

 
आलेख 
जवाहर चौधरी 

          हाल ही में नोएडा की 43 और 41 वर्षीय दो बहनें , जिन्होंने हमारी शिक्षा  व्यवस्था की सबसे बड़ी डिग्री पीएच.डी. हासिल  की है, पिछले सात माह से अपने घर में बंद थीं और माता-पिता की मृत्यु के दुःख में अवसाद और अकेलेपन का जीवन जी रहीं थी। दो भाई हैं लेकिन एक का पता नहीं और दूसरा बैंगलोर में नौकरी करता है । एक पालतू कुत्ता जिसे ये बहनें बहुत प्यार करती थीं, मर गया । इस सदमें में वे दोनों डिप्रेशन  में चलीं गई । किसी तरह पुलिस को खबर लगी तो उन्हें बाहर निकाल कर अस्पताल पहुंचाया गया जहां बड़ी बहन की मृत्यु हार्ट अटैक से हो गई और दूसरी की हालत स्थिर है ।
                 प्रश्न  यह है कि नगरों - महानगरों में हमने जिस समाज व्यवस्था को रच लिया है आखिर उसके सच को कब तक अनदेखा करेंगे !! सब दुःखी हैं , सब शिकार  हैं , सब तनाव में हैं लेकिन इस दुष्चक्र से बाहर आने का रास्ता किसी को सूझ नहीं रहा है । बावजूद जनसंख्या नियंत्रण के आज देश  के पास 121 करोड़ पेट हो गए हैं,  लेकिन अर्से से समझदार राष्ट्र् की एक या दो बच्चों की मांग का सम्मान करते आ रहे हैं । पढ़-लिख कर बच्चे नौकरी के लिए यहां-वहां चले गए और घर में बूढ़े मां-बाप अकेले रह गए । बाहर निकल कर उन्होंने देखा तो  बिना रुके दौड़ने वाली दुनिया के दर्शन  हुए । लोग इतने आत्मकेन्द्रित कि भौतिक सुख-साधनों की रेत में सिर घुसाए अपने में ही मगन रहते हैं । किसीके दुःख में शरीक हो कर बांट लेने की रस्मी आवश्यकता  भी धुमिल होती जा रही है । इधर  इंटरनेट की खिड़की से रचा जा रहा समाज सुविधाजनक है क्योंकि वहां मर्जी आपकी है , पहल आपकी है लेकिन जिम्मेदारी नहीं है । अमेरिका या जापान में क्या हो रहा है इसकी चिंता ज्यादा है , लेकिन पड़ौस में सन्नाटा क्यों है इस पर किसी का ध्यान नहीं है । नोएडा की उक्त बहनें सामान्यजन हैं किन्तु फिल्म जगत के कई नामी अपने घर में अकेले मर गए । लोगों को चार-पांच दिन बाद पता चला जब बदबू बाहर आई ।
                   छोटी जगहों पर घर के बाहर , ओटले पर बैठने का चलन होता है । आते-जाते लोग दिखते-देखते हैं , नमस्कार और बात भी हो जाती है । लेकिन नगरों में बाहर बैठने का और दूसरों को दिखाई देने का चलन नहीं है .  इसलिए कब कौन संकट में है , है या नहीं है , पता ही नहीं चलता । छुप कर रहने की इस प्रवृत्ति के पीछे ईगो-प्राबलम के अलावा सुरक्षा और विश्वास  का संकट भी है । मुंबई-दिल्ली में अकेले रह रहे बुजुर्गों की हत्याओं ने लोगों को स्वयं सलाखों में कैद हो कर रहने के लिए विवश  कर दिया है ।
         तब उपाय क्या है ?
         मैंने शिवमूर्तिजी से पूछा तो बोले - ‘‘ उपाय होता तो पश्चिम  वालों ने नहीं ढूंढ लिया होता । .... अच्छा है कि मेरी पोल्ट्री में यह समस्या नहीं है । मेरे पास एक ही उपाय है कि जो मुर्गी अंडा देना बंद कर देती है उसे मैं होटल वालों को ‘टेबल-यूज’ के लिए बेच देता हूं । ’’

Friday, April 8, 2011

नए सिरे की तलाश में .........




आलेख 
जवाहर चौधरी     


    कई बार ऐसा होता है जब हम नए सिरे  से जिंदगी शुरू करना चाहते हैं . जैसे बालू रेत में अपना संसार रचते बच्चे , जब मन का नहीं होता तो,  सारा रचा मिटा देते हैं और नये सिरे से काम शुरू करते हैं . लेखन में तो अक्सर ऐसा होता है , अपने लिखे को जब नए सिरे से लिखा जाता है तो वह सचमुच नया हो जाता है , पहले से भिन्न और बेहतर . बेहतर कि चाह ही पिछले को ख़ारिज करने का साहस देती है.  जीवन में भी ऐसे मौके आते हैं जब यह इच्छा तीव्र हो जाती है कि पिछला विलोपित हो जाये . संसार में कोई चीज स्थाई नहीं है , इसलिए बुरे वक्त को भी बीतना ही पड़ता है . लेकिन कभी कभी वह भूकंप  कि तरह आ कर बीतता है और अपने हस्ताक्षर छोड़ जाता है . तब मन होता है कि सब कुछ नए सिरे से शुरू किया जाए .

                कहने , सोचने में यह सहज लगता है लेकिन जीवन में नया सिरा ढूंढ़ लेना कठिन है . हमारे जीवन काल में ऐसा कोई समय नहीं होता है जिसे काट  कर अलग किया जा सके . समय अपनी सुक्रतियों - विकृतियों के साथ हमारे बीच हमेशा मौजूद रहता है . इसमें से मीठा - मीठा और अच्छा - अच्छा चुन लेने कि स्वतंत्रता हमें नहीं है . आप बदलाव के लिए नौकरी छोड़ सकते  हैं , घर बदल सकते हैं , अपने शौक बदलते हैं , संवाद बदलते हैं लेकिन फिर भी जीवन का नया सिरा नहीं मिलता . हर बदलाव में बीता समय  अनचाहे प्रवेश कर लेता है . लगता है हमारा अस्तित्व कुछ और नहीं बीते हुए समय का पुंज है , अतीत कि गठरी मात्र  !! और इस गठरी से मुक्ति का  नाम म्रत्यु है . एक शरीर में हम दो बार जन्म क्यों नहीं  ले सकते हैं ?


              विस्मरण या भूलने को एक ईश्वरीय वरदान कहा जाता है . किन्तु भूलने कि प्रक्रिया क्या है ? किसी को कैसे भूला जा सकता है ! होता विपरीत है , जिसे हम भूलना चाहते हैं वह ज्यादा याद रहता है . तमाम फोटो और अल्बम अलमारी में बंद करके रख दीजिये और मान लीजिये कि स्मृतियाँ कैद हो गईं , लेकिन क्या सच में ? उसका उपयोग किया सामान , किताबें , कपड़े , जब आँखों के सामने पड़ते हैं तो जीवित प्राणियों कि तरह उदास और अकेले दिखाई देते हैं.  रेडिओ पर उसकी पसंद का गीत बजता है या रसोई से रोटी की  महक उठती है तो दीवारें उसका नाम बोलने लगती हैं . जो है वही नहीं छुट रहा , .... कैसे मिलेगा नया सिरा !  .... जीवन में शायद एक ही सिरा होता  है ..... और हम उसी पर चल रहे होते हैं .

Thursday, March 31, 2011

मन को करें प्रशिक्षित .

                
आलेख 
जवाहर चौधरी 

    कहा जाता है कि समय से पहले और भाग्य से ज्यादा किसीको नहीं मिलता है . जीवन में जो घटता है वो भाग्य का ही लिखा होता है, दुःख भी  . इसलिए मान लो कि हमें  भाग्य के अनुसार ही सब कुछ मिला है - घर-परिवार, सम्बन्धी , कपडे़-लत्ते , भोजन, मकान, शिक्षा , देश - समाज व संगती,  सब  .  इसके अलावा अन्य  जरूरतें हो सकती हैं , वे भी पूरी हो ही रही हैं . फिर भी हममें   से ज्यादातर लोग खुश नहीं रहते। जरा-सी प्रतिकूल परिस्थिति आते ही वे दुखी  हो जाते हैं . हमारा मन यदि  कमजोर व बिखरा हो तो  दुखी होता रहता है . मन को समझना कठिन है .  जिंदगी में सब कुछ ठीक  होने पर भी कई बार मन दुःख  को तलाशता रहता है . दरअसल  मन कभी खाली नहीं रहता है . यदि हमने  मन को कहीं नहीं लगाया तो  मन खुद ही भूत या अतीत  में विचरण  करने लग जाता है । पहले कुछ बुरा  घटा हो तो  उसके बारे में सोचकर दुखी होने लगता है . सोचता है कि ऐसा नहीं हुआ  होता तो कितना अच्छा  होता . या फिर अपने से ज्यादा धनी , सुखी व सफल  लोगों, साथियों व रिश्तेदारों के बारे में सोचकर दुखी होने लगता है . अगर पास में धन-दौलत भी हो, तो भी मन किसी और छोटी बात को पकड़कर दुखी होने लगता है . मन अगर  कमजोर हो तो उसे  दुख में रहना अच्छा लगता है . मनोवैज्ञानिक द्रष्टि  से  देखें तो लगता है कि निराशा में व्यक्ति दुःख में भी सुख पाने लगता है . इससे बाहर आना बहुत जरुरी है .   
                    मन को ठीक रखने के लिए उसे प्रशिक्षण देने कि आवश्यकता होती है . इसके बिना वह  सकारात्मक नहीं हो पाता है । हमारा प्रयास यही होना चाहिए कि मन को प्रशिक्षित करें क्योंकि मन बिना सिखाए कुछ नहीं सीखता। इसके लिए अभ्यास की जरूरत होती है . अभ्यास से मन को वर्तमान में यानी यथार्थ में रखा जा सकता है , जो  बीत गया सो बीत गया . अब हमारे वश में कुछ नहीं है . जो घटित हो गया , हो गया . भाग्य का निर्णय नहीं बदला जा सकता है , लेकिन भविष्य हमसे उम्मीदें लिए सामने खड़ा होता है . हर दिन हमें कुछ नया करना है , कुछ अच्छा करना है .इसलिए जरुरी है कि  हमेशा मुस्कुराते रहें , सबके प्रति शुक्रिया का भाव रखें । इससे मन धीरे-धीरे सधने लगता है , उसे शांति मिलती है , आत्मविश्वास पैदा होता है ,  जीवन में सकारात्मकता आती है और समय  शीतल  होने लगता  है . इसलिए अपने मन को करें मजबूत , पत्थर की तरह  .

Friday, March 18, 2011

HOLI HAI !!! /....... बुरा न मानो होली है !!!

फैशन का टेंशन
जवाहर चौधरी
आलेख 
जवाहर चौधरी 


आज का फैशन सफलता की ऊंचाइयों को स्पर्श करते हुए कमर की नीचाइयों पर चमत्कारिक रूप से टिका हुआ है। कट-रीनाओं से लेकर मल्लिकाओं तक की कमर के अंतिम छोर पर एक रेखा होती है, जिसे सिनेमाई शहर में ‘एलओसी’ कहा जाता है। जैसे गरीबी की रेखा होती है, लेकिन दिखाई नहीं देती, वैसे ही फैशन की भी रेखा होती है, जो कितनी भी आंखें फाड़ लो, दिखाई नहीं देती है। एलओसी एक आभासी रेखा होती है, सुधीजन जिसकी कल्पना करते पाए जाते हैं। मैडम दुशाला दास का टेंशन इसी एलओसी से शुरू होता है।

दुशाला जी को चिंता तो तभी होने लगी थी, जब सुंदरियां मात्र डेढ़ मीटर कपड़े का ब्लाउज पहनने लगीं थीं। लेकिन अब डेढ़ मीटर कपड़े में दस ब्लाउज बन रहे हैं, तो वे टीवी खोलते ही तमतमाने लगती हैं। उस पर दास बाबू का दीदे फाड़ कर टीवी देखना उनकी बर्दाश्त के बाहर हो जाता है। मुए मर्द हय-हय, अश-अश करते बस बेहोश ही नहीं हो रहे हैं। जी चाहता है कि बेवफाओं को दीवार में जिंदा चुनवा कर अनारकली की वफा का हिसाब बराबर कर लें नामुरादों से। पिछले दिनों कट-रीनाओं ने असंभव होने के बावजूद जब एलओसी को नीचे की ओर जरा और खिसका दिया तो मैडम दुशाला को मेडिकल चेकअप के लिए ले जाना पड़ा।

              डाक्टर ने आदतन सवाल किया कि ‘आपको किस बात का टेंशन है?’ जवाब में उनके टेंशन का लावा बह निकला, बोलीं - ‘ हवा-पानी के असर से कभी-कभी पहाड़ भी भरभरा कर गिर जाते हैं। किसी दिन लगातार जीरो साइज होती जा रही कमर घोखा दे गई तो... टीवी वाले हफ्तों तक, बल्कि तब तक दिखाते रहेंगे तब तक कि देश  की पूरी एक सौ पंद्रह करोड़ जनसंख्या की दो सौ तीस करोड़ आंखें तृप्त नहीं हो जातीं ।  हमारी सरकार किसी ‘एलओसी’ की रक्षा नहीं कर पा रही है! क्या होगा देश का?’ 
               15 दिन के बेड रेस्ट और टीवी न देखने की हिदायत के साथ वे लौटीं। अभी हफ्ता भी नहीं गुजरा था कि एक दिन दास बाबू रात दो बजे फैशन-टीवी का पारायण करते हुए रंगी आखों बरामद हुए।यहाँ ‘एलओसी’ की समस्या नहीं थी , वह मात्र एक रक्षा-चौकी  में बदल गई थी ।  खुद दास बाबू इतने विभारे थे कि जान ही नहीं पाए कि मैडम दुशाला  ने दबिश  डाल कर उन्हें गिरी हुई अवस्था में जब्त कर लिया है । सुबह तक दुशालाजी की पाठशाला चली, किंतु वे इस प्रश्न का उत्तर नहीं पा सकीं कि दास बाबू आखिर उसमें देख क्या रहे थे!
               दरअसल दास बाबू को टीवी में जो दिख रहा था, उससे ज्यादा उत्सुक होकर वे ‘संभावना’ देख रहे थे। चैनल भी बार-बार ब्रेक से  टीआरपी को कैश कर रहा था और ‘कमिंग-अप’ की पट्टी लगा कर संभावनाएं बनाए हुए था। हर ब्रेक के बाद ‘संभावना’ बढ़ रही थी और दास बाबू को दास बनाती जा रही थी। वे सारांश पर आए कि संभावना से आदमी को ऊर्जा मिलती है।

                 दुशालाजी दुःखी इस बात से हैं कि टीवी वाले पत्रकार इतना खोद-खोद कर पूछते हैं कि जवाब देने वाला लगातार गड्ढ़े में धंसता चला जाता है, लेकिन इन देवियों से नहीं पूछते कि कमर को पासपोर्ट की तरह इस्तेमाल करना आखिर कब बंद करेंगी? संयोगवश एक दिन उनकी यह तमन्ना पूरी हो गई। टीवी के ‘बहस और चिंता’ कार्यक्रम में वे सवाल पूछ रहीं थीं कि आपको डर नहीं लगता, अगर कहीं सारा फैशन भरभरा कर गिर पड़े तो...। उपस्थित कट-रीनाओं में से एक ने जवाब दिया, ‘काश ऐसा होता ! ..... गिरने की संभावना फैशन का सबसे बड़ा कारण है, ...... लेकिन अब तक गिरा तो नहीं ..।’

                 ‘लेकिन टेंशन तो बना रहता है .  ऐसा फैशन आखिर किस लिए?’ वे बोलीं।‘ जिसे आप डर कह रही है, दरअसल वो अमूल्य संभावना है। फैशन का काम ही संभावना पैदा करना है।‘ दुशाला-दास’ होने में आज की दुनिया कोई संभावना नहीं देखती है। और जिसमें ‘संभावना’ नहीं होती वो भगवान के भरोसे होता है।’ दुशालाजी को जैसे डाक्टर से जवाब मिल गया। एक नए टेंशन के साथ वे लौट रही हैं।

Thursday, March 10, 2011

जाउं पिया के देस ओ रसिया मैं सजधज के..


                  
आलेख 
जवाहर चौधरी 

        अट्ठावन-उनसाठ का समय याद आ रहा है । इन्दौर ...... एक छोटा सा शहर , जिसमें घोड़े से चलने वाला तांगा और बैलगाड़ियां खूब थीं । सामान्य लोग पैदल चला करते थे । युवाओं में सायकल का बड़ा क्रेज था । सूट पहने, टाई बांधे सायकल सवार को देख कर लोग प्रभावित हुए बिना नहीं रहते । उस वक्त की फिल्मों में हीरो-हीरोइन भी सायकल के सहारे ही प्रेम की शुरुवात  करते थे । दहेज में सायकल देने का चलन शुरू हो गया था । दूल्हे प्रायः दुल्हन की अपेक्षा सायकल पा कर ज्यादा खुश  होते । सायकिल को धोने-पोंछने और चमकाने के अलावा पहियों में गजरे आदि डाल कर सजाने का शौक आम था ।


               बिजली सब जगह नहीं थी, दुकानों में पेट्रोमेक्स जला करते थे । सूने इलाके में स्थित हमारा घर कंदिल से रौशन  होता था । मनोरंजन के लिए लोग प्रायः ताश  पर निर्भर होते थे । कुछ लोग शतरंज  या चौसर  भी जानते थे । लेकिन इनकी संख्या बहुत कम थी । संगीत की जरूरत वाद्ययंत्रों से पूरी हो पाती थी जिसमें ढ़ोलक सबको सुलभ थी । पिताजी ने चाबी से चलने-बजने वाला एक रेकार्ड प्लेयर खरीद लिया था जिसे ‘चूड़ी वाला बाजा’ कहते थे । घर में बहुत से रेकार्ड जमा किए हुए थे । उन्हें बाजे का बड़ा शौक  था । एक डिब्बी में बाजा बजाने के लिए पिन हुआ करती थी । एक पिन से चार या पांच बार रेकार्ड बजाया जा सकता था । पिन वे छुपा कर रखते थे, मंहगी आती थी ।
उनदिनो एक गाना खूब बजाया जाता था -- ‘ चली कौन से देस गुजरिया तू सजधज के ........ जाउं पिया के देस ओ रसिया मैं सजधज के ..... ’ । मुझे भी बाजा सुनना बहुत भाता था । यह गीत तो बहुत ही पसंद था । लेकिन इजाजत नहीं थी बजाने की । इसलिए प्रतीक्षा रहती कि पिताजी के कोई दोस्त आ जाएं । दोस्त अक्सर शाम को आते और ‘बाजा-महफिल’ जमती । कई गाने सुने जाते लेकिन ‘ चली कौन से देस ...’ दो-तीन या इससे अधिक बार बजता ।

कुछ समय बाद रेडियो के बारे में चर्चा होने लगी । पिताजी के दोस्त बाजा-महफिल के दौरान तिलस्मी रेडियो का खूब बखान करते । एक दिन रेडियो आ ही गया । बगल में रखी भारी सी लाल बैटरी से उसे चलाया जाता । सिगनल पकड़ने के लिए घर के उपर तांबे की जाली का पट्टीनुमा एंटीना बांधा गया जो बारह-तेरह फिट लंबा था । रेडियो बजा तो  सब निहाल हो गए । उसकी आवाज बाजे से ज्यादा साफ और अच्छी थी । आवाज को कम-ज्यादा करने की सुविधा भी चौकाने  वाली थी । कई दिनों तक लोग रेडियो को देखने के लिए आते रहे । साफ आवाज सुन कर बूढ़े और महिलाएं समझतीं कि इस डब्बे में लोग बैठे बोल रहे हैं । रेडियो सायकल से बड़ा सपना बनने जा रहा था ।
जल्द ही रेडियो सिलोन में दिलचस्पी बढ़ी , खासकर बिनाका गीतमाला में । अमीन सायानी की आवाज में जादू का सा असर था, जब वे ‘भाइयो और बहनो’ के संबोधन के साथ कुछ कहते तो कानों में शहद  घुल उठती ।  बुधवार का दिन इतना खास हो गया कि इसे ‘बिनाका-डे’ कहा जाने लगा । शाम  होते ही लोग आने लगते । आंगन में बड़ी सी दरी बिछाई जाती जो पूरी भर जाती । उन दिनों पहली पायदान पर रानी रूपमति का गीत ‘ आ लौट के आजा मेरे मीत , तुझे मेरे गीत बुलाते हैं .....’ महीनों तक बजता रहा था । सायानी एक बार मुकेश  और एक बार लता मंगेषकर की आवाज में इसे सुनवाते । इस गीत के आते आते श्रोताओं का अनंद अपने चरम पर होता, वे झूमने लगते ।

इस बैटरी-रेडियो को भी बड़ी किफायत से चलाया जाता था क्योंकि बैटरी बहुत मंहगी आती थी । इसलिए अभी ‘चूड़ी वाले बाजे’ का महत्व कम नहीं हुआ था । याद नहीं कब तक ऐसा चला और बिजली आ गई ।  कुछ दिनों बाद ही बिजली वाला रेडियो भी ।
पहले ‘चूड़ी वाला बाजा’ बेकार हुआ , फिर बैटरी-रेडियो भी घटे दामों बाहर निकला । लेकिन इनकी  यादें हैं कि टीवी युग में भी अपनी जगह बनाए हुए हैं ।

Friday, January 21, 2011

सोने का सुख !!!


              
आलेख 
जवाहर चौधरी 

            पुराने समय में जमींदारों के घर में औरतें सोने के जेवर तुडवाती- बनवाती रहती थीं । यही उनका काम था । सुनार भी उन्हें तुडवा कर नया बनवाने के लिए प्रेरित करते रहते थे ।
                नरेश एक भले इंसान हैं और अपने व्यवसाय की इस चालाकी से दुखी भी । उन्होंने बताया कि सोना हमेशा सुनार का होता है । पहनने वाले इसे उधार में पहनते हैं । सोने का जो गणित उन्होंने बताया वह चैंकाने वाला है । आप भी देखिए----

                       जेवर बनाने के लिए सोने में तांबा मिलाया जाता है जिसे " खार " कहते हैं । कहा जाता है कि खार 10 प्रतिशत मिलया जाता है लेकिन वास्तव में यह 20 प्रतिशत होता है ।
                   1. माना कि आप दस ग्राम सोने का जेवर खरीदते हैं तो आपको वास्तव में आठ ग्राम सोना मिलेगा । इसमें दो ग्राम खार होगा .
                   2. दोबारा तब उसे तुड़वा कर नया बनवाने जाते हैं तो सुनार दो ग्राम खार काटेगा और उसे ही नया बना कर देते वक्त दो ग्राम खार जोड़ेगा । इस तरह चार ग्राम का घपला हो जाएगा ।  अब तक कुल घपला छः ग्राम का हो गया ।
                   3. अब अगर आप दूसरी बार तुड़वा कर नई डिजाइन का जेवर बनवाते हैं तो फिर चार ग्राम का घपला होगा ।
इस तरह दो बार जेवर तुड़वाने-बनवाने में आपका सारा सोना सुनार के पास चला जाता है और आपको पता भी नहीं चलता है ।
            
   अगली बार जब सोने का सुख उठाना चाहें  तो जरा सोच समझ कर  .                
                  अच्छी बात यह है कि नरेश जैसे लोग इस बात से दुखी हैं । लेकिन बाजार की इस चालाकी  को ठीक करवाना उनके हाथ में नहीं है . सोने के मामले में सावधानी ही सुरक्षा है . जहाँ तक संभव हो सोने से बचिए .


Saturday, January 1, 2011

गीतकार कैफी आज़मी की एक रचना .......


सब ठाठ पड़ा रह जावेगा

जब लाद चलेगा बंजारा

धन तेरे काम न आवेगा

जब लाद चलेगा बंजारा



जो पाया है वो बाँट के खा

कंगाल न कर कंगाल न हो

जो सबका हाल किया तूने
एक रोज वो तेरा हाल न हो
इस हाथ से दे उस हाथ से ले



हो जावे सुखी ये जग सारा

हो जावे सुखी ये जग सारा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा

जब लाद चलेगा बंजारा
 क्या कोठा कोठी क्या बँगला 
 ये दुनिया रैन बसेरा है


 क्यूँ झगड़ा तेरे मेरे का

  कुछ तेरा है न मेरा है
 सुन कुछ भी साथ न जावेगा
  जब कूच का बाजा नक्कारा
  जब कूच का बाजा नक्कारा



सब ठाठ पड़ा रह जावेगा

जब लाद चलेगा बंजारा
धन तेरे काम न आवेगा

जब लाद चलेगा बंजारा

एक बंदा मालिक बन बैठा

हर बंदे की किस्मत फूटी

था इतना मोह खजाने का
दो हाथों से दुनिया लूटी
थे दोनो हाथ मगर खाली

उठा जो सिकंदर बेचारा
उठा जो सिकंदर बेचारा

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा

जब लाद चलेगा बंजारा