Thursday, December 30, 2010

इस तरह भी जिन्दगी की शाम न हो !

आलेख 
जवाहर चौधरी                 

    उनसे मेरा परिचय पुराना है । 80 के दशक  में वे नगर के कला जगत में एक चर्चित व्यक्ति हुआ करते थे । पेशे  से सिविल इंजीनियर, शौक से चित्रकार, अच्छे साहित्य के गंभीर पाठक, बैठकबाज, चेन स्मोकर, फनकारों की मेहमानवाजी का ऐसा नशा  कि पूछिए मत और शहर में सालाना चार-पांच कार्यक्रम करवा कर बाकी समय उसकी जुगाली में व्यस्त-मस्त रहने वाले निहायत सज्जन आदमी । उनके द्वारा आयोजित चित्रकला प्रदर्शनियां और कला बहसों को याद करने वाले बहुत हैं । आज के अनेक चित्रकार और विज्ञापन जगत में सक्रिय उस समय के युवा उनके सहयोगी हुआ करते थे ।

उनका मन था कि वे कला के लिए ऐसा कुछ करें कि लोग लंबे समय तक उन्हें याद रखें । यही सब कारण रहे कि वे अपने मूल काम सिविल इंजीनियरिंग पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाए । प्रतियोगिता के जमाने में उंघने की इजाजत किसी को नहीं होती है । समय न किसी की प्रतीक्षा करता है, न भूल सुधारने का मौका देता है और न ही क्षमा करता है । वे लगातार पीछे होते गए और नब्बे के दशक में उन्हें अपना कामकाज समेट लेना पड़ा ।

घर में वे अपने मिजाज के अकेले रह गए । संतान हुई नहीं , पत्नी ने समाजसेवा का रास्ता चुन प्रस्थान कर लिया । परिवार में भाई आदि हैं और संपन्न हैं । लेकिन बिगड़े दिल का किसी से इत्तफाक होने की परंपरा कब थी जो इनकी होती । तकदीर के  रिवाज के मुताबिक अब डायबिटिज है, हाथों में कंपन और वृद्धावस्था के साथ अकेलापन । चूंकि पढ़ने का नशा रहा सो घर में जमा सैकड़ों किताबों के बीच पाठ और पुनर्पाठ के जरिए समय से मुठभेड़ करती आंखें ।


लेकिन आवश्यकताओं  से नजरें चुरा कर कोई कितने दिन जी सकता है ! कहने भर को ही है जिन्दगी चार दिनों की । जब काटना पड़ जाए तो पहाड़ हो जाती है । एक सुबह चार किताबें ले कर आए । किताबों की तारीफ की और कहा ये तुम्हारे लिए हैं । बदले में अंकित मूल्य की मांग की । ये क्षण चैंकाने से ज्यादा दुःखदायी थे । स्वाभिमान की रक्षा का भ्रम उन्हें अब भी एक आवरण दे रहा था लेकिन अंदर जैसे वे पिघल रहे थे । मैंने तुरंत मूल्य चुकाया और आग्रह के बावजूद वे चाय पिए बगैर रवाना हो गए ।
उनके जाने के बाद ऐसे कितने ही दीवाने याद आए जिन्होंने स्वाति की एक बूंद की आस में जीवन को सुखा दिया । चले खूब लेकिन कहीं पहूंच  नहीं सके । हमारे यहां तो सितारों की  शाम कहां गुम हो जाती है, पता नहीं चलता । बार-बार लगता है कि काश जिन्दगी के इस खेल में आदमी के पास निर्णय बदलने के लिए कोई "लाइफ लाइन" होती । बरबस ये शब्द जुबां पर आते हैं --
इस तरह भी जिन्दगी की शाम  न हो
मांगू कतरा-रौशनी और इंतजाम न हो 



Tuesday, December 21, 2010

शॉर्ट स्कर्ट पहनने के चलते रेपिस्ट आकर्षित होता है. !?!


आलेख 
जवाहर चौधरी 



                   ब्रिटेन में किए गए एक सर्वे में चौंकाने वाले परिणाम सामने आए हैं। सर्वे में शामिल महिलाओं का मानना है कि रेप के लिए रेपिस्ट से ज्यादा पीड़ित महिला जिम्मेदार होती हैं। यह सर्वे 18 से 24 साल की एक हजार महिलाओं के बीच किया गया है।
 

सर्वे में शामिल 54 फीसदी महिलाओं ने कहा कि रेप के लिए रेपिस्ट से ज्यादा पीड़ित जिम्मेदार है। इनमें 24 फीसदी महिलाओं का कहना है कि शॉर्ट स्कर्ट पहनने के चलते रेपिस्ट उनकी तरफ आकर्षित होता है और उसका मनोबल बढ़ता है। इन महिलाओं का यह भी कहना है कि रेपिस्ट के साथ ड्रिंक और उसके साथ बातचीत करना भी उसको रेप के लिए उकसाता है। इसलिए ये महिलाएं पीड़ित को रेप के लिए जिम्मेदार ठहराती हैं। लगभग 20 फीसदी महिलाओं का मानना है कि अगर पीड़ित रेपिस्ट के घर जाती है तो वह कहीं ना कहीं रेप के लिए जिम्मेदार होती है। लगभग 13 फीसदी महिलाओं ने कहा कि रेपिस्ट के साथ उत्तेजक डांस और उसके साथ फ्लर्ट करना भी रेप के लिए थोड़ा बहुत उत्तरदायी है। 

                         सर्वे में एक और बात सामने आई है कि लगभग 20 फीसदी महिलाएं तो रेप की रिपोर्ट ही नहीं करती है। ये महिलाएं शर्म के चलते ऐसा नहीं करती हैं। चौंकानेवाली बात यह कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद ब्रिटेन में सिर्फ 14 फीसदी रेप केसों में ही सजा मिल पाती है .

स्थानीय बनाम बाहरी लोग



                        

आलेख 
जवाहर चौधरी 
      राज्यों में बाहरी लोगों का मुद्दा बार बार उठता रहा है । महाराष्ट्र् में शिवसेना  ने तो कई बार इस प्रसंग पर अप्रिय स्थितियां पैदा की हैं । दिल्ली में एक बार मुख्यमंत्री शीला  दीक्षित ने गंदगी फैलाने और अव्यवस्थ के लिए बाहरी लागों को कारण बता कर विवाद मोल लिया था । पंजाब में भी बाहरी के मुद्दे पर गरमाहट रही । हाल ही में गृहमंत्री चिदंबरम ने भी दिल्ली में बढ़ रहे अपराधों के लिए बाहरी लोगों की गरदन पकड़ी है । ऐसा प्रतीत होता है कि देश  के तमाम नेता अपने को राज्यों तक संकुचित कर बाहरी लोगों का विरोध कर रहे हैं । लेकिन जरा स्थिर हो कर देखें तो पता लगेगा कि यह सच है । जिस राज्य में किन्हीं भी कारणों से बाहरी लोगों का आना-जाना अधिक होगा वहां अवांछित गतिविधियां भी ज्यादा होंगी, विशेषकर  महानगरों में । स्थानीय व्यक्ति की जड़ें वहां होती हैं ।              


                        मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो उसका लगाव अपने क्षेत्र से होता है जो उसे जिम्मेदारी के भाव से भी भरता है । ये बातें उसके आचरण को नियंत्रित करती हैं । लेकिन बाहरी आदमी इस तरह के सभी दबावों से पूर्णतः मुक्त होता है । वह पहचानहीनता के कवच में अच्छा-बुरा कुछ भी कर सकता है । दूसरे शहर  में वह सड़क पर घूम कर शनि-महाराज के नाम पर भीख मांग सकता है , जूता पालिश  कर सकता है या फेरी लगा कर गुब्बारे बेच सकता है , उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा । लेकिन यही सब वह अपने क्षेत्र में नहीं करेगा क्योंकि पहचाने जाने का दबाव उसे रोकेगा । कालगर्ल अक्सर पकड़ी जाती हैं , पता चलता है कि वे स्थानीय नहीं दूसरे शहर  की हैं । विदेशों में हमारे बहुत से सम्माननीय बेबी-सिटिंग का काम ख़ुशी ख़ुशी  कर लेते हैं । कोई सफाई का काम बेहिचक करता है तो कोई ऐसे काम बड़े आराम से कर लेता है जो दूसरे नहीं करते । बाहरी आदमी एक प्रकार से मुक्त आदमी होता है । घर में हर आदमी हाथ पोछने  के लिए टावेल और जूता पोंछने के लिए रद्दी कपड़े का उपयोग करता है । लेकिन वही जब होटल में होता है तो इन्हीं कामों के लिए खिड़की के परदों और बिस्तर पर लगी कीमती चादर को बेहिचक इस्तेमाल कर लेता है । न ये सामान उसका है , न उसे इनसे लगाव है और सबसे बड़ी बात, होटल में वह एक बाहरी आदमी है ।

                            इसका मतलब यह कतई नहीं कि बाहरी आदमी हमेशा अपराधी ही होते हैं । किसी भी राज्य के विकास में बाहरी लोगों की भूमिका स्थानीय लोगों से कम नहीं होती । देश  में देखें तो महाराष्ट्र्, पंजाब, बंगाल आदि है , विदेशों में अमेरिका, दुबई इसके उदाहरण हैं जहां बाहरी लोगों ने अमूल्य योगदान दिया है । प्रायः हर जगह मजदूरी जैसे कठिन और जोखिम भरे काम बाहरी लोगों द्वारा ही किए जाते हैं । महानगरों में संभावनाएं होती हैं इसलिए परिश्रमी और महत्वाकांक्षी लोग वहां अधिक पहुंचते हैं । लेकिन कुछ लोगों के गलत कामों के कारण उनके योगदान पर पानी फिर जाता है ।
स्थानीय स्तर पर जब कोई अपराध करता है तो बचने-झुपने के लिए वह भीड़ वाले स्थानों की ओर ही जाता है । नगरों की भीड़ छुपने की सबसे सुरक्षित जगह होती है । प्रायः अपराधी छोटी जगहों से नगर और फिर महानगरों की ओर गति करते हैं । अपराध की पूंजी ले कर आने वाले मुक्त व्यक्ति कब क्या करेंगे कुछ कहा नहीं जा सकता है, अच्छा तो शायद  नहीं ही करेंगे । इसलिए जब यह कहा जाता है कि बाहरी लोगों के कारण अपराध हो रहे हैं तो उसे सिरे से नकारा नहीं जाना चाहिए ।
                        यदि सुरक्षा हो तो  हमारा आचरण उसे चुनौती देने का नहीं होना चाहिए । सुरक्षा के कारण ही महानगरों में खुलापन अधिक होता है । एक लड़की दिल्ली में जिस तरह के परिधान इस्तेमाल करती है वैसे छोटी जगह पर नहीं करती है । क्योंकि वहां के लोगों की मानसिकता सुरक्षा में कमी के कारण वैसी निश्चिन्त  नहीं है । जहां संवैधानिक सुरक्षा का इंतजाम पुख्ता नहीं होता वहां परंपराएं प्रबल होती हैं और उनसे सुरक्षा प्राप्त की जाती है । डकैत शादी -ब्याह में होने वाले तामझाम से अपना शिकार  तय करते हैं इसलिए छोटी जगहों पर सामान्य लोग सुरक्षा के लिए दिखावा करने से बचते हैं । महानगरों में दिखावे की प्रवृत्ति बहुत अधिक होती है । मौकों पर घन का प्रदर्शन  हो या अंग का, कोई पीछे नहीं रहना चाहता है । कहना नहीं होगा कि इसका प्रभाव अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोगों पर पड़ता है । स्थानीय लोगों के बीच सिक्का जमता है, वहीं बाहरी आदमी को एक शिकार  नजर आ जाता है । यदि तन या धन का फूहड़ प्रदर्शन  होगा तो सुरक्षा बढ़ा लेने के बावजूद जोखिम कम नहीं होंगे ।