Friday, October 29, 2010

Life 3650 days ! जिन्दगी ३६५० दिन !!

आलेख 
जवाहर चौधरी  


     रेतघड़ी में झरते कणों की तरह समय का क्षरण किस तरह हो रहा है हम जान नहीं पाते हैं । जब थोड़ी सी रेत बचती है तब हमारा ध्यान जाता है ] तब चिंता होती है । शेष समय चिंता में झरने लगता है । साठ के मुहाने पर खड़े यह विचार बार बार दस्तक दे रहा है कि हिसाब करो ] क्या किया अब तक \ पूंजी सा समय खर्च दिया ] पाया क्या \ देखते देखते दिन कपूर हुए] कहां गए ! कहने को तो मित्र कहेंगे कि उम्र के बारे में सोचना नहीं चाहिए । तो क्या नहीं गिनने से समय रुक जाता है ! न गिनना समय से नजरें चुराना नहीं है क्या \ हालाकि अस्सी-नब्बे की आयु वाले आसपास ही हैं । लेकिन उनकी लंबी आयु का राज यह नहीं है कि उन्होंने अपने दिनों का हिसाब नहीं किया ।
          शुरुवात यों हुई कि पिछले जनमदिन पर ध्यान गया कि काफी आगे आ गए हैं । पिछली बार के इस दिन से अब तक 365 दिन खिसक गए । दस साल में 3650 निकल जाते हैं एक एक कर । अगर आम आदमी की आम आयु को उदारता से सत्तर साल भी मान लिया जाए तो जिन्दगी 25550 दिनों में सिमट जाती है । इसमें आरंभिक दस साल समझिए आंख खोलने-देखने में गए और बाद के दस साल खड़े होने की तैयारी में । इस तरह 7300 दिन खर्च होने के बाद बचे 18250 दिन और हासिल हुई नाक के नीचे मात्र मूंछ नाम की काली पट्टी । आगे के दस साल भीड़ भरी दुनिया में अपना पांव जमाने की कोशिश ] शादी ] एकाध बच्चा भी और फिर 3650 दिन खाते से कम होने के बाद शेष  रही केवल 14600 सुबहें । आधा जीवन अपने नाम के साथ खड़े होने के प्रयास में निकल गया ।

          जीवन आरंभ हुआ तो लगा कि अब जियंेगे । लेकिन जल्द ही पता चला जीने के लिए घर चाहिए] रसोई चाहिए ] वाहन होना ] बच्चों के लिए शिक्षा ] स्वास्थ्य वगैरह न जाने क्या क्या । इनके चक्कर में 7300 दिन कब ] कैसे खिसक गए पता ही नहीं चला । पचास पार खुद अपने शरीर ने हायतौबा मचाना शुरु कर दिया । दवाएं ] डाॅक्टर ] अस्पताल और बीमा ] मेडीक्लेम आदि में साठ हो गए । आज जब देखते हैं तो सांसों के पर्स में 3650 दिन ही बचे हैं । कवि भवानीप्रसाद मिश्र की पंक्तियों में कहूं तो ^^ जीवन गुजर गया जीने की तैयारी में **
 
          क्या हो सकता है 3650 में ! पिछला देखने पर लगता है कि कुछ नहीं किया । मन बहुत कुछ करना चाहता है किन्तु आगे विस्तार नहीं । पछतावा है ] चिंता भी है ] लेकिन समय की चिड़िया चुग गई खेत । सोचता हूं ऐसा हुआ होता तो अच्छा था या ऐसा नहीं हुआ होता तो बेहतर था ] लेकिन समय के एलबम में कोई तस्वीर नहीं बदल सकती है । जो गया वो कभी वापस नहीं आता है । ये समय की तासीर है ] यही वक्त का जादू है । फिर भी बता समय ] 3650 दिनों की जिन्दगी के बदले मुझे तुझसे क्या मिलेगा \

Tuesday, October 26, 2010

* हमारे विभीषण और भस्मासुर !




आलेख 
जवाहर चौधरी 

     

     पिछले दिनों कश्मीर के भारत में विलय पर सवाल उठाकर विवाद खड़ा करने वाली अरुंधति रॉय ने श्रीनगर में एक सेमिनार के दौरान कहा है कि कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा है.  दिल्ली में कश्मीर पर हुए उस सेमिनार में भी अरुंधति मौजूद थीं, जिसको लेकर काफ़ी बवाल मचा था. कश्मीरी अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी पर देशद्रोह का मुक़दमा चलाने की मांग उठी थी.
        लेकिन रविवार को एक बार फिर अरुंधति रॉय ने सेमिनार में कश्मीर के भारत का अभिन्न अंग होने पर ही सवाल उठा दिया कि कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा है. यह ऐतिहासिक तथ्य है. भारत सरकार ने भी इसे स्वीकार किया है

श्रीनगर में आयोजित इस सेमिनार का विषय था- मुरझाया कश्मीर: आज़ादी या दासता. इस सेमिनार का आयोजन किया था 'कोअलिशन ऑफ़ सिविल सोसाइटीज़' ने.

                  अरुंधती राय का उक्त बयान चौकाने वाला है . कश्मीर की समस्या को जिस तरह उन्होने लिया है 
वो अलगाववादियो की समझ और भाषा है . कोई भी प्रांत या राज्य के कुछ लोग किन्हीं भी कारणों 
को लेकर अलगाववादी राजनीति करने लगेंगे तो क्या पचास साठ साल बाद उनका समर्थन किया जाना चाहिए ? इतिहास के मायने क्या है ? इतिहास को उसकी पूर्णता के साथ देखा जाना चहिए . अखंड भारत की सीमा कहाँ तक थी सबको पता है . उसमे कश्मीर भारत का हिस्सा था या नहीं यह किसी अनपढ़ को भी बताने की ज़रूरत नही है . राजनीति को छोड़ दिया जाए तो कश्मीर का इतिहास उसकी माटी , संस्कृति और कश्मीरी पंडितों से भी जाना जा सकता है .
                     यदि देश अलगाववादियो की सुनता रहे तो समस्या किस सूबे मे नहीं है ! कल नक्सलवादियो की माँग आ जाएगी अलग होने की तो लोग उसे भी जस्तीफई करने लगेंगे ! देश को टुकड़ों मे विभाजित होने मे देर लग़ेगी क्या ? देश के नागरिक देश को जोड़ने के लिए है . इसकी एकता को चोट पहुँचना देशद्रोह है . 


                 कुछ लोग अपने को बुद्धिजीवी  मानने लगते है और न्याय की लड़ाई  के नाम पर खुद अपनी लड़ाई लड़ने लगते हैं . चाहे वो कितनी छोटी क्यों ना हो . भारत मे बोलने की आज़ादी है तो क्या इस आज़ादी के दुरुपयोग की छूट भी मिली हुई है ! भस्मासुर को देश बर्दाश्त करेगा क्या ? हमारे बीच मे पल रहे विभीषणों को हम माला पहनाते रहेंगे !! यह कट्टरवाद की भाषा नही है , अस्तित्व रक्षा की भाषा है . अलगाववादियो को अंधे बुद्धिजीवी चाहिए जो न्याय के नाम पर उनकी बेजा माँगो का समर्थन कर सकें .