Monday, August 30, 2010

"फाड़ दी".....!!!! यह किसकी भाषा है !?



आलेख 
जवाहर चौधरी 


            हाल ही में टीवी चैनल बदते हुए एक जगह भाषाई धमाका सुन रुकना पड़ा । एंकर एक अल्प-परिधाना युवती थी और किसी प्रसंग पर बोल रही थी - ‘‘... वो भोत बड़ा फट्टू है । ’’ लगभग बीस मिनिट में उसने धाराप्रवाह और निर्विकार भाव से फाड़ दी’ , ‘फट गई ’ , ‘चौड़ी हो गई ’ , ‘उंगली कर दी’ , काड़ी कर दी , जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया । ये शब्द बाकायदा सुने गए लेकिन कुछ शब्दों के स्थान पर सीटी की आवाज थी , जिनके बारे में कल्पना की जा सकती है कि वे क्या होगें ।  कहने की आवश्यकता नहीं कि युवती कॉन्वेंट शिक्षित और महानगरीय आधुनिकता के हिसाब से कल्चर्डश्रेणी में रखी जाती होगी ।
                  जहां तक घरों का सवाल है वहां भी पढ़ने का चलन लगभग समाप्त हो गया है । टीवी/वीडियो से बचा समय माॅल/ शापिंग में खर्च हो जाता है । साहित्य और पुस्तकों के लिए घर के किसी कोने में जगह नहीं है । स्कूल/कालेजों में बच्चे अब अपने अभिभावकों के बारे में बात करते हैं तो उनकी भाषा होती है -- ‘‘ ... आता जरुर पर ज्यादा देर बाहर रहो तो मेरा बाप भौंकने लगता है । ’’ या  ‘‘ मेरा बुढ्ढ़ा पाकेटमनी नहीं बढ़ा रहा है यार । ’’ इसी तरह के अनेक शब्द हैं जिनका उल्लेख करना अपनी पीढ़ी की बेइज्जती करना है । ये शब्द दुर्भाग्यवश इन पंक्तियों के लेखक ने सुने हैं । टोकने पर उनका उत्तर था ‘‘ बाप को बाप बोलने में क्या गलत है ? ’’ यानी संस्कार की आवश्यकता पहले पाठ से ही है ।

              भाषाई संस्कार के संदर्भ में हमारी चिंता प्रायः अंग्रेजी को लेकर होती है । शहरों में हमारे बच्चे जिनमें युवा भी शामिल हैं, हिन्दी के अखबार और पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने में कठिनाई महसूस करते हैं । खासकर संपादकीय पृष्ठ, साहित्य और विचार सामग्री को वे छोड़ देते हैं । उनका पाठ सबसे अधिक विज्ञापनों का होता है । राष्ट्र्ीय-अंतराष्ट्र्ीय खबरों की सुर्खियों के अलावा अपराध-समाचारों पर उनकी नजरें टिकतीं हैं । इनके अलावा फोटोयुक्त समाचार और सूचनाएं भी देखेजाते हैं । देखने की प्रवृत्ति अधिक हो गई है । जहां भी भी पढ़ने की जरुरत होती है या भाषा का मामला आता है वे बचते हैं ।
                    भाषा के संदर्भ में इनदिनों शिक्षकों के हाल भी उल्लेखनीय नहीं हैं । विज्ञान के शिक्षकों से शायद भाषा की अपेक्षा कम हो किन्तु कला एवं वाणिज्य के शिक्षक भी भाषा की दरिद्रता से पीड़ित दिखाई देते हैं । ज्यादातर गाइड़, गेसपेपर और वन-डे-सिरिज जैसी बाजारु सामग्री से नोट्स बना कर नौकरी संपन्न होती है ।  सरकारी और निजी गैर शैक्षणिक कार्यों की अधिकता के कारण उनके पास स्वाध्याय के लिए समय ही नहीं है । यदि मौके-बे-मौके एक पृष्ठ लिखने की जरुरत पड़ जाए तो भाषा के पतले हाल उजागर हो जाते हैं । रटंत अध्ययन पद्धति के कारण भाषा अर्थहीन स्थिति में चलती रहती है । ऐसे में नई पीढ़ी को भाषाई संस्कार मिलने में कठिनाई आना ही है ।
             
                    अगर ये हमारी अगली पीढ़ी की हांड़ी का चावल है तो गंभीरता पूर्वक सोचने की आवश्यकता है कि गलती कहां हो रही है ।