Thursday, December 30, 2010

इस तरह भी जिन्दगी की शाम न हो !

आलेख 
जवाहर चौधरी                 

    उनसे मेरा परिचय पुराना है । 80 के दशक  में वे नगर के कला जगत में एक चर्चित व्यक्ति हुआ करते थे । पेशे  से सिविल इंजीनियर, शौक से चित्रकार, अच्छे साहित्य के गंभीर पाठक, बैठकबाज, चेन स्मोकर, फनकारों की मेहमानवाजी का ऐसा नशा  कि पूछिए मत और शहर में सालाना चार-पांच कार्यक्रम करवा कर बाकी समय उसकी जुगाली में व्यस्त-मस्त रहने वाले निहायत सज्जन आदमी । उनके द्वारा आयोजित चित्रकला प्रदर्शनियां और कला बहसों को याद करने वाले बहुत हैं । आज के अनेक चित्रकार और विज्ञापन जगत में सक्रिय उस समय के युवा उनके सहयोगी हुआ करते थे ।

उनका मन था कि वे कला के लिए ऐसा कुछ करें कि लोग लंबे समय तक उन्हें याद रखें । यही सब कारण रहे कि वे अपने मूल काम सिविल इंजीनियरिंग पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाए । प्रतियोगिता के जमाने में उंघने की इजाजत किसी को नहीं होती है । समय न किसी की प्रतीक्षा करता है, न भूल सुधारने का मौका देता है और न ही क्षमा करता है । वे लगातार पीछे होते गए और नब्बे के दशक में उन्हें अपना कामकाज समेट लेना पड़ा ।

घर में वे अपने मिजाज के अकेले रह गए । संतान हुई नहीं , पत्नी ने समाजसेवा का रास्ता चुन प्रस्थान कर लिया । परिवार में भाई आदि हैं और संपन्न हैं । लेकिन बिगड़े दिल का किसी से इत्तफाक होने की परंपरा कब थी जो इनकी होती । तकदीर के  रिवाज के मुताबिक अब डायबिटिज है, हाथों में कंपन और वृद्धावस्था के साथ अकेलापन । चूंकि पढ़ने का नशा रहा सो घर में जमा सैकड़ों किताबों के बीच पाठ और पुनर्पाठ के जरिए समय से मुठभेड़ करती आंखें ।


लेकिन आवश्यकताओं  से नजरें चुरा कर कोई कितने दिन जी सकता है ! कहने भर को ही है जिन्दगी चार दिनों की । जब काटना पड़ जाए तो पहाड़ हो जाती है । एक सुबह चार किताबें ले कर आए । किताबों की तारीफ की और कहा ये तुम्हारे लिए हैं । बदले में अंकित मूल्य की मांग की । ये क्षण चैंकाने से ज्यादा दुःखदायी थे । स्वाभिमान की रक्षा का भ्रम उन्हें अब भी एक आवरण दे रहा था लेकिन अंदर जैसे वे पिघल रहे थे । मैंने तुरंत मूल्य चुकाया और आग्रह के बावजूद वे चाय पिए बगैर रवाना हो गए ।
उनके जाने के बाद ऐसे कितने ही दीवाने याद आए जिन्होंने स्वाति की एक बूंद की आस में जीवन को सुखा दिया । चले खूब लेकिन कहीं पहूंच  नहीं सके । हमारे यहां तो सितारों की  शाम कहां गुम हो जाती है, पता नहीं चलता । बार-बार लगता है कि काश जिन्दगी के इस खेल में आदमी के पास निर्णय बदलने के लिए कोई "लाइफ लाइन" होती । बरबस ये शब्द जुबां पर आते हैं --
इस तरह भी जिन्दगी की शाम  न हो
मांगू कतरा-रौशनी और इंतजाम न हो 



Tuesday, December 21, 2010

शॉर्ट स्कर्ट पहनने के चलते रेपिस्ट आकर्षित होता है. !?!


आलेख 
जवाहर चौधरी 



                   ब्रिटेन में किए गए एक सर्वे में चौंकाने वाले परिणाम सामने आए हैं। सर्वे में शामिल महिलाओं का मानना है कि रेप के लिए रेपिस्ट से ज्यादा पीड़ित महिला जिम्मेदार होती हैं। यह सर्वे 18 से 24 साल की एक हजार महिलाओं के बीच किया गया है।
 

सर्वे में शामिल 54 फीसदी महिलाओं ने कहा कि रेप के लिए रेपिस्ट से ज्यादा पीड़ित जिम्मेदार है। इनमें 24 फीसदी महिलाओं का कहना है कि शॉर्ट स्कर्ट पहनने के चलते रेपिस्ट उनकी तरफ आकर्षित होता है और उसका मनोबल बढ़ता है। इन महिलाओं का यह भी कहना है कि रेपिस्ट के साथ ड्रिंक और उसके साथ बातचीत करना भी उसको रेप के लिए उकसाता है। इसलिए ये महिलाएं पीड़ित को रेप के लिए जिम्मेदार ठहराती हैं। लगभग 20 फीसदी महिलाओं का मानना है कि अगर पीड़ित रेपिस्ट के घर जाती है तो वह कहीं ना कहीं रेप के लिए जिम्मेदार होती है। लगभग 13 फीसदी महिलाओं ने कहा कि रेपिस्ट के साथ उत्तेजक डांस और उसके साथ फ्लर्ट करना भी रेप के लिए थोड़ा बहुत उत्तरदायी है। 

                         सर्वे में एक और बात सामने आई है कि लगभग 20 फीसदी महिलाएं तो रेप की रिपोर्ट ही नहीं करती है। ये महिलाएं शर्म के चलते ऐसा नहीं करती हैं। चौंकानेवाली बात यह कि सरकार के तमाम दावों के बावजूद ब्रिटेन में सिर्फ 14 फीसदी रेप केसों में ही सजा मिल पाती है .

स्थानीय बनाम बाहरी लोग



                        

आलेख 
जवाहर चौधरी 
      राज्यों में बाहरी लोगों का मुद्दा बार बार उठता रहा है । महाराष्ट्र् में शिवसेना  ने तो कई बार इस प्रसंग पर अप्रिय स्थितियां पैदा की हैं । दिल्ली में एक बार मुख्यमंत्री शीला  दीक्षित ने गंदगी फैलाने और अव्यवस्थ के लिए बाहरी लागों को कारण बता कर विवाद मोल लिया था । पंजाब में भी बाहरी के मुद्दे पर गरमाहट रही । हाल ही में गृहमंत्री चिदंबरम ने भी दिल्ली में बढ़ रहे अपराधों के लिए बाहरी लोगों की गरदन पकड़ी है । ऐसा प्रतीत होता है कि देश  के तमाम नेता अपने को राज्यों तक संकुचित कर बाहरी लोगों का विरोध कर रहे हैं । लेकिन जरा स्थिर हो कर देखें तो पता लगेगा कि यह सच है । जिस राज्य में किन्हीं भी कारणों से बाहरी लोगों का आना-जाना अधिक होगा वहां अवांछित गतिविधियां भी ज्यादा होंगी, विशेषकर  महानगरों में । स्थानीय व्यक्ति की जड़ें वहां होती हैं ।              


                        मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो उसका लगाव अपने क्षेत्र से होता है जो उसे जिम्मेदारी के भाव से भी भरता है । ये बातें उसके आचरण को नियंत्रित करती हैं । लेकिन बाहरी आदमी इस तरह के सभी दबावों से पूर्णतः मुक्त होता है । वह पहचानहीनता के कवच में अच्छा-बुरा कुछ भी कर सकता है । दूसरे शहर  में वह सड़क पर घूम कर शनि-महाराज के नाम पर भीख मांग सकता है , जूता पालिश  कर सकता है या फेरी लगा कर गुब्बारे बेच सकता है , उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा । लेकिन यही सब वह अपने क्षेत्र में नहीं करेगा क्योंकि पहचाने जाने का दबाव उसे रोकेगा । कालगर्ल अक्सर पकड़ी जाती हैं , पता चलता है कि वे स्थानीय नहीं दूसरे शहर  की हैं । विदेशों में हमारे बहुत से सम्माननीय बेबी-सिटिंग का काम ख़ुशी ख़ुशी  कर लेते हैं । कोई सफाई का काम बेहिचक करता है तो कोई ऐसे काम बड़े आराम से कर लेता है जो दूसरे नहीं करते । बाहरी आदमी एक प्रकार से मुक्त आदमी होता है । घर में हर आदमी हाथ पोछने  के लिए टावेल और जूता पोंछने के लिए रद्दी कपड़े का उपयोग करता है । लेकिन वही जब होटल में होता है तो इन्हीं कामों के लिए खिड़की के परदों और बिस्तर पर लगी कीमती चादर को बेहिचक इस्तेमाल कर लेता है । न ये सामान उसका है , न उसे इनसे लगाव है और सबसे बड़ी बात, होटल में वह एक बाहरी आदमी है ।

                            इसका मतलब यह कतई नहीं कि बाहरी आदमी हमेशा अपराधी ही होते हैं । किसी भी राज्य के विकास में बाहरी लोगों की भूमिका स्थानीय लोगों से कम नहीं होती । देश  में देखें तो महाराष्ट्र्, पंजाब, बंगाल आदि है , विदेशों में अमेरिका, दुबई इसके उदाहरण हैं जहां बाहरी लोगों ने अमूल्य योगदान दिया है । प्रायः हर जगह मजदूरी जैसे कठिन और जोखिम भरे काम बाहरी लोगों द्वारा ही किए जाते हैं । महानगरों में संभावनाएं होती हैं इसलिए परिश्रमी और महत्वाकांक्षी लोग वहां अधिक पहुंचते हैं । लेकिन कुछ लोगों के गलत कामों के कारण उनके योगदान पर पानी फिर जाता है ।
स्थानीय स्तर पर जब कोई अपराध करता है तो बचने-झुपने के लिए वह भीड़ वाले स्थानों की ओर ही जाता है । नगरों की भीड़ छुपने की सबसे सुरक्षित जगह होती है । प्रायः अपराधी छोटी जगहों से नगर और फिर महानगरों की ओर गति करते हैं । अपराध की पूंजी ले कर आने वाले मुक्त व्यक्ति कब क्या करेंगे कुछ कहा नहीं जा सकता है, अच्छा तो शायद  नहीं ही करेंगे । इसलिए जब यह कहा जाता है कि बाहरी लोगों के कारण अपराध हो रहे हैं तो उसे सिरे से नकारा नहीं जाना चाहिए ।
                        यदि सुरक्षा हो तो  हमारा आचरण उसे चुनौती देने का नहीं होना चाहिए । सुरक्षा के कारण ही महानगरों में खुलापन अधिक होता है । एक लड़की दिल्ली में जिस तरह के परिधान इस्तेमाल करती है वैसे छोटी जगह पर नहीं करती है । क्योंकि वहां के लोगों की मानसिकता सुरक्षा में कमी के कारण वैसी निश्चिन्त  नहीं है । जहां संवैधानिक सुरक्षा का इंतजाम पुख्ता नहीं होता वहां परंपराएं प्रबल होती हैं और उनसे सुरक्षा प्राप्त की जाती है । डकैत शादी -ब्याह में होने वाले तामझाम से अपना शिकार  तय करते हैं इसलिए छोटी जगहों पर सामान्य लोग सुरक्षा के लिए दिखावा करने से बचते हैं । महानगरों में दिखावे की प्रवृत्ति बहुत अधिक होती है । मौकों पर घन का प्रदर्शन  हो या अंग का, कोई पीछे नहीं रहना चाहता है । कहना नहीं होगा कि इसका प्रभाव अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोगों पर पड़ता है । स्थानीय लोगों के बीच सिक्का जमता है, वहीं बाहरी आदमी को एक शिकार  नजर आ जाता है । यदि तन या धन का फूहड़ प्रदर्शन  होगा तो सुरक्षा बढ़ा लेने के बावजूद जोखिम कम नहीं होंगे ।
                            

Friday, October 29, 2010

Life 3650 days ! जिन्दगी ३६५० दिन !!

आलेख 
जवाहर चौधरी  


     रेतघड़ी में झरते कणों की तरह समय का क्षरण किस तरह हो रहा है हम जान नहीं पाते हैं । जब थोड़ी सी रेत बचती है तब हमारा ध्यान जाता है ] तब चिंता होती है । शेष समय चिंता में झरने लगता है । साठ के मुहाने पर खड़े यह विचार बार बार दस्तक दे रहा है कि हिसाब करो ] क्या किया अब तक \ पूंजी सा समय खर्च दिया ] पाया क्या \ देखते देखते दिन कपूर हुए] कहां गए ! कहने को तो मित्र कहेंगे कि उम्र के बारे में सोचना नहीं चाहिए । तो क्या नहीं गिनने से समय रुक जाता है ! न गिनना समय से नजरें चुराना नहीं है क्या \ हालाकि अस्सी-नब्बे की आयु वाले आसपास ही हैं । लेकिन उनकी लंबी आयु का राज यह नहीं है कि उन्होंने अपने दिनों का हिसाब नहीं किया ।
          शुरुवात यों हुई कि पिछले जनमदिन पर ध्यान गया कि काफी आगे आ गए हैं । पिछली बार के इस दिन से अब तक 365 दिन खिसक गए । दस साल में 3650 निकल जाते हैं एक एक कर । अगर आम आदमी की आम आयु को उदारता से सत्तर साल भी मान लिया जाए तो जिन्दगी 25550 दिनों में सिमट जाती है । इसमें आरंभिक दस साल समझिए आंख खोलने-देखने में गए और बाद के दस साल खड़े होने की तैयारी में । इस तरह 7300 दिन खर्च होने के बाद बचे 18250 दिन और हासिल हुई नाक के नीचे मात्र मूंछ नाम की काली पट्टी । आगे के दस साल भीड़ भरी दुनिया में अपना पांव जमाने की कोशिश ] शादी ] एकाध बच्चा भी और फिर 3650 दिन खाते से कम होने के बाद शेष  रही केवल 14600 सुबहें । आधा जीवन अपने नाम के साथ खड़े होने के प्रयास में निकल गया ।

          जीवन आरंभ हुआ तो लगा कि अब जियंेगे । लेकिन जल्द ही पता चला जीने के लिए घर चाहिए] रसोई चाहिए ] वाहन होना ] बच्चों के लिए शिक्षा ] स्वास्थ्य वगैरह न जाने क्या क्या । इनके चक्कर में 7300 दिन कब ] कैसे खिसक गए पता ही नहीं चला । पचास पार खुद अपने शरीर ने हायतौबा मचाना शुरु कर दिया । दवाएं ] डाॅक्टर ] अस्पताल और बीमा ] मेडीक्लेम आदि में साठ हो गए । आज जब देखते हैं तो सांसों के पर्स में 3650 दिन ही बचे हैं । कवि भवानीप्रसाद मिश्र की पंक्तियों में कहूं तो ^^ जीवन गुजर गया जीने की तैयारी में **
 
          क्या हो सकता है 3650 में ! पिछला देखने पर लगता है कि कुछ नहीं किया । मन बहुत कुछ करना चाहता है किन्तु आगे विस्तार नहीं । पछतावा है ] चिंता भी है ] लेकिन समय की चिड़िया चुग गई खेत । सोचता हूं ऐसा हुआ होता तो अच्छा था या ऐसा नहीं हुआ होता तो बेहतर था ] लेकिन समय के एलबम में कोई तस्वीर नहीं बदल सकती है । जो गया वो कभी वापस नहीं आता है । ये समय की तासीर है ] यही वक्त का जादू है । फिर भी बता समय ] 3650 दिनों की जिन्दगी के बदले मुझे तुझसे क्या मिलेगा \

Tuesday, October 26, 2010

* हमारे विभीषण और भस्मासुर !




आलेख 
जवाहर चौधरी 

     

     पिछले दिनों कश्मीर के भारत में विलय पर सवाल उठाकर विवाद खड़ा करने वाली अरुंधति रॉय ने श्रीनगर में एक सेमिनार के दौरान कहा है कि कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा है.  दिल्ली में कश्मीर पर हुए उस सेमिनार में भी अरुंधति मौजूद थीं, जिसको लेकर काफ़ी बवाल मचा था. कश्मीरी अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी पर देशद्रोह का मुक़दमा चलाने की मांग उठी थी.
        लेकिन रविवार को एक बार फिर अरुंधति रॉय ने सेमिनार में कश्मीर के भारत का अभिन्न अंग होने पर ही सवाल उठा दिया कि कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा है. यह ऐतिहासिक तथ्य है. भारत सरकार ने भी इसे स्वीकार किया है

श्रीनगर में आयोजित इस सेमिनार का विषय था- मुरझाया कश्मीर: आज़ादी या दासता. इस सेमिनार का आयोजन किया था 'कोअलिशन ऑफ़ सिविल सोसाइटीज़' ने.

                  अरुंधती राय का उक्त बयान चौकाने वाला है . कश्मीर की समस्या को जिस तरह उन्होने लिया है 
वो अलगाववादियो की समझ और भाषा है . कोई भी प्रांत या राज्य के कुछ लोग किन्हीं भी कारणों 
को लेकर अलगाववादी राजनीति करने लगेंगे तो क्या पचास साठ साल बाद उनका समर्थन किया जाना चाहिए ? इतिहास के मायने क्या है ? इतिहास को उसकी पूर्णता के साथ देखा जाना चहिए . अखंड भारत की सीमा कहाँ तक थी सबको पता है . उसमे कश्मीर भारत का हिस्सा था या नहीं यह किसी अनपढ़ को भी बताने की ज़रूरत नही है . राजनीति को छोड़ दिया जाए तो कश्मीर का इतिहास उसकी माटी , संस्कृति और कश्मीरी पंडितों से भी जाना जा सकता है .
                     यदि देश अलगाववादियो की सुनता रहे तो समस्या किस सूबे मे नहीं है ! कल नक्सलवादियो की माँग आ जाएगी अलग होने की तो लोग उसे भी जस्तीफई करने लगेंगे ! देश को टुकड़ों मे विभाजित होने मे देर लग़ेगी क्या ? देश के नागरिक देश को जोड़ने के लिए है . इसकी एकता को चोट पहुँचना देशद्रोह है . 


                 कुछ लोग अपने को बुद्धिजीवी  मानने लगते है और न्याय की लड़ाई  के नाम पर खुद अपनी लड़ाई लड़ने लगते हैं . चाहे वो कितनी छोटी क्यों ना हो . भारत मे बोलने की आज़ादी है तो क्या इस आज़ादी के दुरुपयोग की छूट भी मिली हुई है ! भस्मासुर को देश बर्दाश्त करेगा क्या ? हमारे बीच मे पल रहे विभीषणों को हम माला पहनाते रहेंगे !! यह कट्टरवाद की भाषा नही है , अस्तित्व रक्षा की भाषा है . अलगाववादियो को अंधे बुद्धिजीवी चाहिए जो न्याय के नाम पर उनकी बेजा माँगो का समर्थन कर सकें . 

Monday, September 13, 2010

आँख वालों में अंधा राजा !! / LEADER WITHOUT EYES.






आलेख 
जवाहर चौधरी 

देखने में आ रहा है कि शहरों के आसपास के गांवों और छोटी व पिछड़ी जगहों से आए लोग नगरों का नेतृत्व करने लगते हैं । उनकी जड़ें शहरों में नहीं ] कहीं और होतीं हैं और वे प्रतिनिधित्व कहीं और का करते हैं । इसमें शायद बुराई न हो । हमारे राष्ट्र्ीय नेताओं ने छोटे स्थानों से निकल कर पूरे देश का नेतृत्व किया किन्तु उन्होंने ज्यादातर मामलों में स्थानीय समाज या समूहों की उपेक्षा नहीं की । गांधीजी को ही लें ] आजादी की लड़ाई में वे देश का नेतृत्व कर रहे थे ] वहीं स्त्री शिक्षा ] बाल विवाह ] छुआछूत ] संाप्रदायिकता जैसी ज्वलंत सामाजिक समस्याओं पर उनकी चिंता व सक्रियता कम नहीं थी । फिर आज दिक्कत क्या है !\


आज महानगरों में नेतागिरी चमकाने वालों पर एक नजर डालकर देखिए । वे समारोहों में भाषण करते हैं ] कुरीतियों पर टिप्पणी करते हैं । विकास और सुधार के मुद्दों पर सरकार को गरियाते हैं लेकिन स्वयं जिस समूह ] समाज या जाति से निकल कर आए हैं वहां की बुराइयों के प्रति आंखें मूंदे रहते हैं ! बाल विवाह रोकना है तो सरकार रोके ] कानून काम करे ] पुलिस देखे । हम तो जनभावना और परंपरा के खिलाफ नहीं बोलेंगे । क्या जनप्रतिनिधि होना कुरीतियों का समर्थक होना भी है !! हाल ही में हमारे कुछ नेता खाप पंचायतों की हिमायत में राष्ट्र्पति तक जा पहुंचे ! क्या जनता के कल्याण की जिम्मेदारी सिर्फ संविधान की है !\ 

नेता ऐसा भाव रखते हैं मानों संविधान से उनका नाता सिर्फ शपथ लेने तक ही था । भले ही स्कूल कालेजों में जा कर वे प्रगतिशीलता की बकवास कर आएं पर अपनी जाति या अपने घर की लड़कियों को नहीं पढ़ाएंगे । जब भी वजह पूछी जाए दांत दिखाते हुए कहेंगे कि हमारे समाज में लड़कियों को पढ़ाने का रिवाज नहीं है । तमाम बड़े नगरों की नाक पर ऐसे नेता बैठे मिल जाएंगे जिनके समाज में चार-पांच साल की लड़कियों के विवाह की परंपरा आज के युग में भी जारी है और वे निर्लज्जतापूर्वक इस ओर से आंख फेरे हुए हैं ! नेता मान कर चलते हैं कि यह सब काम सरकार का है । दुःख की बात है कि जनता भी यही माने बैठी है । कहीं भी नेता से यह सवाल नहीं किया जा रहा है कि आप जो देश की किसी समस्या पर संसद को सफलतापूर्वक मच्छीबाजार बना डालते हैं कभी अपने समूह-समाज की समस्या पर लोगों को मार्गदर्शन देते हैं
\- यदि वर्तमान युग में भी हमारे नेता अपने समूह का पिछड़ा नजरिया नहीं बदल पाए हैं तो यह किसके लिए शर्मनाक है \ और क्या हक बनता है उन्हें नगरीय और विकसित समाजों का नेतृत्व करने का \!

Monday, August 30, 2010

"फाड़ दी".....!!!! यह किसकी भाषा है !?



आलेख 
जवाहर चौधरी 


            हाल ही में टीवी चैनल बदते हुए एक जगह भाषाई धमाका सुन रुकना पड़ा । एंकर एक अल्प-परिधाना युवती थी और किसी प्रसंग पर बोल रही थी - ‘‘... वो भोत बड़ा फट्टू है । ’’ लगभग बीस मिनिट में उसने धाराप्रवाह और निर्विकार भाव से फाड़ दी’ , ‘फट गई ’ , ‘चौड़ी हो गई ’ , ‘उंगली कर दी’ , काड़ी कर दी , जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया । ये शब्द बाकायदा सुने गए लेकिन कुछ शब्दों के स्थान पर सीटी की आवाज थी , जिनके बारे में कल्पना की जा सकती है कि वे क्या होगें ।  कहने की आवश्यकता नहीं कि युवती कॉन्वेंट शिक्षित और महानगरीय आधुनिकता के हिसाब से कल्चर्डश्रेणी में रखी जाती होगी ।
                  जहां तक घरों का सवाल है वहां भी पढ़ने का चलन लगभग समाप्त हो गया है । टीवी/वीडियो से बचा समय माॅल/ शापिंग में खर्च हो जाता है । साहित्य और पुस्तकों के लिए घर के किसी कोने में जगह नहीं है । स्कूल/कालेजों में बच्चे अब अपने अभिभावकों के बारे में बात करते हैं तो उनकी भाषा होती है -- ‘‘ ... आता जरुर पर ज्यादा देर बाहर रहो तो मेरा बाप भौंकने लगता है । ’’ या  ‘‘ मेरा बुढ्ढ़ा पाकेटमनी नहीं बढ़ा रहा है यार । ’’ इसी तरह के अनेक शब्द हैं जिनका उल्लेख करना अपनी पीढ़ी की बेइज्जती करना है । ये शब्द दुर्भाग्यवश इन पंक्तियों के लेखक ने सुने हैं । टोकने पर उनका उत्तर था ‘‘ बाप को बाप बोलने में क्या गलत है ? ’’ यानी संस्कार की आवश्यकता पहले पाठ से ही है ।

              भाषाई संस्कार के संदर्भ में हमारी चिंता प्रायः अंग्रेजी को लेकर होती है । शहरों में हमारे बच्चे जिनमें युवा भी शामिल हैं, हिन्दी के अखबार और पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने में कठिनाई महसूस करते हैं । खासकर संपादकीय पृष्ठ, साहित्य और विचार सामग्री को वे छोड़ देते हैं । उनका पाठ सबसे अधिक विज्ञापनों का होता है । राष्ट्र्ीय-अंतराष्ट्र्ीय खबरों की सुर्खियों के अलावा अपराध-समाचारों पर उनकी नजरें टिकतीं हैं । इनके अलावा फोटोयुक्त समाचार और सूचनाएं भी देखेजाते हैं । देखने की प्रवृत्ति अधिक हो गई है । जहां भी भी पढ़ने की जरुरत होती है या भाषा का मामला आता है वे बचते हैं ।
                    भाषा के संदर्भ में इनदिनों शिक्षकों के हाल भी उल्लेखनीय नहीं हैं । विज्ञान के शिक्षकों से शायद भाषा की अपेक्षा कम हो किन्तु कला एवं वाणिज्य के शिक्षक भी भाषा की दरिद्रता से पीड़ित दिखाई देते हैं । ज्यादातर गाइड़, गेसपेपर और वन-डे-सिरिज जैसी बाजारु सामग्री से नोट्स बना कर नौकरी संपन्न होती है ।  सरकारी और निजी गैर शैक्षणिक कार्यों की अधिकता के कारण उनके पास स्वाध्याय के लिए समय ही नहीं है । यदि मौके-बे-मौके एक पृष्ठ लिखने की जरुरत पड़ जाए तो भाषा के पतले हाल उजागर हो जाते हैं । रटंत अध्ययन पद्धति के कारण भाषा अर्थहीन स्थिति में चलती रहती है । ऐसे में नई पीढ़ी को भाषाई संस्कार मिलने में कठिनाई आना ही है ।
             
                    अगर ये हमारी अगली पीढ़ी की हांड़ी का चावल है तो गंभीरता पूर्वक सोचने की आवश्यकता है कि गलती कहां हो रही है । 

Friday, May 28, 2010

* Caste census / जातिवार जनगणना




आलेख 
जवाहर चौधरी 
         

          पहली बात तो यह कि हम मानते हैं कि जाति बुरी है । लेकिन यह भी मानना होगा कि हम , अगड़े-पिछड़े सब , चाहे-अनचाहे इससे चिपटे बैठे हैं । जो लोग कहते हैं कि हम जाति नहीं मानते वे कच्छा-बनियान जाति का ही पहनते पाए जाते हैं ।




यह देखना होगा कि इसकी जिम्मेदारी किसकी है ? पिछड़े और दलित यदि हीन स्थिति में नहीं हों तो उन्हें अपमानित हो कर आरक्षण लेने की क्या जरुरत है ! उनकी इस हीन दशा की जड़ों में कौन है ? अगड़े यदि अपनी जाति-गौरव को परचम की तरह प्रयोग करेंगे , जाति उनका परिचय-पत्र /आई-कार्ड/ होगा , वे जाति के आधार पर आर्थिक ,सामाजिक, राजनैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए संगठित होंगे तो शेष रहे लोग अपने आप निम्न जाति के घोषित हो जाएंगे । अगर हम बकरियों के झुण्ड में से दस को श्रेष्ठ नस्ल का घोषित करेंगे तो शेष रही अपने आप नस्लहीनता की श्रेणी में आ जाएंगी । अपने को श्रेष्ठता के पद से मंडित करने वालों के लिए कहीं यह गले की हड्डी साबित होता प्रतीत हो रहा है ।


            दूसरी बात , जाति है तो उसकी गणना करने में क्या दिक्कत है ! अगर शरीर में कोई बीमारी है तो रक्त परीक्षण से बचना कोई उपाय नहीं है । सरकार उन्हें कोई आरक्षण दे न दे, कोई योजना बनाए न बनाए किन्तु इससे हमारी सामाजिक संरचना तो स्पष्ट होगी । यह तो साफ होगा कि ‘वोट हमारा-राज तुम्हारा’ जैसे नारों की हकीकत क्या है । मलाई मारने वाले किस जाति के लोग ज्यादा है और सड़क-भवन जैसे निमार्ण कार्यों व कृषि जैसे कामों में हाड़ तोड़ने वाले कौन और कितने हैं । अभी एक परदा है और उसके पीछे सत्ता का अवैध देह व्यापार हो रहा है । यह परदा हटना चाहिए ।




सूचना का अधिकार जबसे समाज को मिला है बहुत सी बेजा हरकतों पर डर सा बैठ गया है । देश की जनता जानना चाहती है कि जो जाति प्रथा समाज, धर्म और राजनीति को इतने गहरे तक प्रभावित कर रही है वास्तव में इसकी स्थिति क्या है । जो नासूर सदियों से शरीर में मौजूद है , उसे पाले रखने की बजाए एक बार नश्तर से गुजर जाने देना अच्छा है । जो भी होगा जन्नत की हकीकत सामने आएगी ।




शंका व्यक्त की जाती है कि लोग लालच में अपनी जाति बदलने में संकोच नहीं करते हैं । यह सही है कि लालच के कारण ही लोग अपमानों के बावजूद अपनी जाति से चिपके रहना चाहते हैं । हमें अपने चिंतन में इस सत्य को शामिल रखना चाहिए कि आजाद भारत में आरक्षण ही जिसने दलितों को हिन्दू समाज में रोके रखा है वरना उन्हें बौद्ध, सिक्ख, ईसाई या मुसलमान हो जाने में ज्यादा लाभ है । हालांकि यह बहस का विषय हो सकता है ।



बहुत दिनों बाद आप पानी की टंकी साफ करना चाहते हैं तो जरुरी है कि पहले उसे अच्छी तरह मचाया जाए । इससे बेशक पानी गंदा होगा , लेकिन टंकी की सफाई के लिए यह आवश्यक है । जातिवार जनगणना से जिनकी बंधी मुट्ठी लाख की है और खुल जाने पर जिसके खाक हो जाने का डर जिन्हें ज्यादा है वे शोर ज्यादा मचा रहे हैं ।




Sunday, May 16, 2010

KHAP KE KHILADI खाप के खिलाड़ी

     
आलेख 
जवाहर चौधरी 
 
         हरियाणा की खाप पंचायतों की चर्चा इनदिनों देश के सुदूर कोनों तक में हो गई है । हिन्दुओं में विवाह तय करते समय मंगल- शनि व गोत्र का ध्यान रखने की पंरपरा सामान्य रही है । किन्तु पिछले कुछ समय से इस मामले जिस तरह की कट्टरता देखने को मिल रही है वह चौंकाने वाली और दुखःद है । दरअस्ल समय के बदलाव के साथ हमारी जीवन शैली और परिस्थितियों में बहुत बदलाव हुआ है । जहां शिक्षा और समझदारी थी वहां बदलाव को जल्दी स्वीकारा गया और जहां पिछड़ापन बना हुआ है वहां अभी भी पंरपराओं के पीछे लोग अपने ही बच्चों की जान लेने पर अविश्वसनीय रुप से आमादा हैं ।



चिंताजनक बात यह है कि खाप पंचायतों का फितूर जाने अनजाने अन्य लोगों को भी अपनी चपेट में ले रहा है । मीडिया में चर्चाएं हो रहीं हैं, जहां लोग गोत्र को भूल चुके थे वहां प्रयास करके इसकी धूल झाड़ी जाने लगी है ।

राजस्थान में वर्षों बाद रुपकुंवर नाम की युवती सती हुई थी तो सती प्रथा के पुनर्जीवित हो जाने का खतरा पैदा हो गया था । अनेक विद्वानों और तथाकथित बुद्धिजीवियों ने इसके समर्थन में लिखना-कहना आंरभ कर दिया था । लेकिन सौभाग्य से कानून ने सख्ती कम नहीं की और देश वापस दलदल में गिरने से बच गया ।

खाप के खिलाड़ी नेता इनदिनों राजनीतिक रुप से दबाव बनाना चाहते हैं कि उनकी गोत्र मान्यता के अनुरुप संविधान में संशोधन किया जाए । जाति-राजनीति करने वाले लोकदल के नेता ओमप्रकाश चौटाला को तो खाप- शरण होने में कोई शरम नहीं आई होगी किन्तु कांग्रेस के शिक्षित और युवा सांसद नवीन जिन्दल का खाप की चपेट में आना चौंकाने वाला है । ये दोनों हाल ही में खाप-पंचायत में उपस्थित हुए, उनका समर्थन किया और उन्हें कानूनी मान्यता दिलवाने का भरोसा भी दे आए । चौटाला  तो खाप-दूत बन कर गृहमंत्री चिदंबरम से मिले भी और हिन्दू विवाह अधिनियम में संशोधन की मांग भी कर आए । यह शुरुवात है , यदि वे खाप के सामने घुटने नहीं टेकते तो चुनाव में उनके विरुद्ध वोट न देने का ‘फतवा’ जारी हो सकता है ।

सवाल यह है कि हिन्दू विवाह अधिनियम देश के नब्बे करोड़ के लिए प्रभावी है । एक क्षेत्र या जाति समूह के हिसाब से इसमें बदलाव की मांग नहीं की जा सकती । जातियों में अपने स्तर पर अनेक परंपराएं होती हैं जिनके पालन को लेकर लोग कानून की उपेक्षा करते भी हैं । किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि कोई परंपरा कानून से उपर हो गई । पुराने समय में सती प्रथा एक परंपरा ही थी । जिस समय राजा राममोहन राय ने अपनी भाभी के सती हो जाने के बाद इस मुद्दे को उठाया, देश में प्रतिवर्ष लगभग एक हजार आठ सौ स्त्रियां सती हो रही थीं, और यह उस समय संबंधित जातियों का मान्य आचरण था । राजस्थान, हरियाणा, उ.प्र., बिहार और म.प्र. में भी अक्षय तृतिया और देवउठनी ग्यारस पर बालविवाह बड़ी संख्या में देखे जा सकते हैं । दहेज प्रथा ,घूंघट प्रथा आदि अनेक परंपराएं हैं जिनके प्रति जातियों का दुराग्रह होता ही है । क्या इन्हें कानून सम्मत बनाने की हम कल्पना भी कर सकते हैं ? नवीन जिन्दल जैसे युवा व शिक्षित नेताओं से अपेक्षा यह है, चूंकि वे नई दुनिया को समझने वाले हैं अतः पिछड़े लोगों की दृष्टि पर जमी धुंध साफ करें । उन्हें नई दिशा दें और नए विचारों के लिये जमीन तैयार करें । गांधीजी जब देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे तब समाज में छूआछूत और सवर्णों के अनुदार आचरण की परंपरा मौजूद थी । लेकिन उन्होंने अपनी शक्ति इन्हें ठीक करने में लगाई, जो उस समय आसान काम नहीं था । तर्क दिया जा सकता है कि गांधीजी को किसी से वोट नहीं चाहिए थे । लेकिन आज कांग्रेस में राहुल गांधी हैं जिन्हें वोट चाहिए और वे उ.प्र. के दौरों में, घोर जातिवादियों के बीच जाते हुए भी जातिप्रथा या खाप जैसी बेहूदा बातों का समर्थन नहीं कर रहे हैं ! स्पष्ट, आधुनिक और प्रगतिशील विचारों व आचरण वाले नेता कभी जातियों के वोट से नहीं बने हैं । नेहरु, इंदिरा, शास्त्री, अटलबिहारी या अड़वानी अपनी जातियों के वोट से देश के नेता नहीं बने । जाति से केवल चौटाला  जैसों की राजनीति चलती है जो कितनी दीर्घकालीन और कितना विस्तार पाती है यह किसी से छुपा नहीं है ।


Tuesday, May 11, 2010

Matrubhoomi: A Nation Without Women

आलेख 
जवाहर चौधरी 


मातृभूमि
ए नेशन विदाउट वुमन



                    भारत में कन्या भ्रूण हत्या का प्रसंग सदियों पुराना है । इसके कारणों को दोहराने की आवष्यकता नहीं है । पिछली जनगणना में हमारे अनेक राज्यों में स्त्री-पुरुष अनुपात में चिंताजनक अंतर सामने आया है । पंजाब और हरियाणा में तो लड़कियों की इतनी कमी है कि वहां दक्षिण भारत और अन्य जगहों से लड़कियां खरीद कर विवाह करने के प्रकरण सामने आए हैं । आज भी लड़कियों को मारने की प्रथा बंद नहीं हुई है । फर्क केवल यह हुआ है कि भ्रूण परीक्षण से पता करके अब उन्हें जन्म से पहले ही मार दिया जाता है ।

                 ‘मातृभूमि - ए नेशन विदाउट वुमन’ मनीष झा की 2005 में रिलीज, इस मायने में एक महत्वपूर्ण फिल्म है कि यह कन्या हत्या की इस समस्या को गहरे असर के साथ दर्शक के मन में उतार देती है । फिल्म का आरंभ प्रसव के दृश्य से होता है । लड़की पैदा होती है जिसे दूध के तपेले में डुबो कर मार दिया जाता है । यह प्रथा, विकृत प्रवृत्ति और मानसिकता का प्रतिनिधि दृश्य आक्रोशित करने वाला है ।
गांव में पांच लड़कों और अधेड़ जमींदार पिता का एक परिवार है । लड़के विवाह योग्य हैं पर पंड़ित द्वारा आसपास दूर दूर तक छान मारने पर भी कोई लड़की उपलब्ध नहीं है । ब्लू फिल्म के शौकीन गांव में हालात इतने बिगड़े हुए हैं कि छोटे लड़के यौन शोषण का सहज शिकार हैं, यहां तक कि गाय-भैंस और बकरियों को भी नहीं छोड़ा जाता है । बाप दहेज की लालच में लड़के को लड़की के कपड़े पहना कर ब्याहने से नहीं चूक रहे हैं । पूरा गांव स्त्री की छाया से भी महरुम है ।

                ऐसे में पास ही कहीं एक लड़की कलकी का पता चलता है जिसे पिता ने उसे बहुत छुपा कर पाला है । पंडित जमींदार को यह सूचना देता है । बात आगे बढ़ती है पर लड़की का पिता एक लाख रुपए के प्रस्ताव के बावजूद जमींदार के बड़े लड़के से ज्यादा उम्र का होने के कारण अपनी लड़की का विवाह नहीं करता है । लेकिन पांच लाख व पांच गाएं ले कर पांचों लड़कों से लड़की ब्याह देता है । ससुराल में कलकी को अपने पतियों के साथ ससुर को भी झेलना पड़ता है । सप्ताह में हर दिन कलकी को एक के साथ सोना होता है । सारे पुरुषों में सबसे छोटा बेटा सुदर्शन और स्वभाव में मानवीय होने के कारण कलकी उसे पसंद करने लगती है । यह बात अन्य भाइयों और पिता को खटकती है और षड़यंत्र पूर्वक वे उसकी हत्या कर देते हैं । जाहिर है अब कलकी पर इनकी पशुता दूने वेग से आक्रमण करती है ।



                  मौका देख कर वह घरेलू नौकर-लड़के रघु के साथ भागने का असफल प्रयास करती है, फलस्वरुप रघु को जान गंवाना पड़ती है । अब सजा के तौर पर उसे गौशाला में सांकल से बांध दिया जाता है । बारी बारी से ‘मर्द’ उसका यौन शोषण करते रहते हैं । इसबीच गांव के दलित जमींदार के घर नौकर रहे अपने लड़के रघु की मौत का बदला लेने के लिये रात में छुप धावा बोलते हैं और गौशाला में जमीदार की बहू कलकी को बंधा देख उसके साथ बलात्कार कर लौट जाते हैं । कलकी गर्भवती हो जाती है ।

इस खबर से गांव के दलित लोग मानते हैं कि जमींदार के घर पैदा होने वाले बच्चे के बाप वे हैं । बात सामने आती है और सामूहिक संघर्ष में बदल जाती है । इधर जमींदार कुपित हो कर कलकी को मार डालना चाहता है लेकिन नया नौकर, एक लड़का, उस पर चाकू से अनेक वार कर उसकी जान ले लेता है और कलकी को बचा लेता है । अगले दृश्य में कलकी का प्रसव है , लड़की के जन्म से सुखांत होता है ।

                     दरअस्ल यह कहानी भविष्य की, चेतावनी देने वाली कहानी है । यह दुनिया में कहीं भी हो सकता है, लेकिन भारत के संदर्भ में तो है ही । भ्रूणहत्या के मामले में भारत जितना जाहिल और गंवार है उतना शायद ही कोई और देश होगा । किन्तु केवल अशिक्षित और पंरपरावादी लोगों पर दोष मढ़ कर हम या कोई भी, इस पाप से मुक्त महसूस नहीं कर सकते हैं । सैकड़ों वर्ष पुरानी इन परंपराओं के पीछे पुरुषों की कायरता ही प्रमुख है जो अपनी बेटियों का भरण-पोषण और रक्षा करने से बचते रहे हैं ।

                       बात बात में धर्म और संस्कृति को याद करने वाला समाज अपनी ही बच्चियों के मामले में इससे विमुख कैसे हो जाता है ! धर्म में ‘पवित्रता का प्रावधान’ इन हत्याओं के लिए इसलिए जिम्मेदार है कि व्यक्ति पाप करके किन्हीं पूजाओं और दान से इसे ‘धो’ सकता है ! यह धारणा किसने पैठा दी है कि विषेष मुहुर्त में गंगा स्नान करने से पापियों के पाप धुल जाते हैं । या पापी के मरने के बाद भी ब्राहम्ण-भोज और कुछ क्रियाएं करने से उसे स्वर्ग में जगह मिल जाती है । पाप से बचने के प्रावधान पाप को बढ़ाने के उपाय ही हैं । जब तक यह बात समझ में नहीं आती कायरों के समाज में न अपराध कम होंगे न पाप ।

                            फिल्म का सबसे अच्छा पक्ष उसका निर्देशन और फिल्मांकन है । विषय में संभावना होने के बावजूद कहीं भी अश्लीलता नहीं है । मनीष झा की समझ को देख कर आश्चर्य होता है । यदृपि वे कम आयु के, एकदम नौजवान हैं, किन्तु दर्शकों को बार-बार लगता है कि वह श्याम बेनेगल की फिल्म देख रहा है । किसी सामाजिक समस्या पर उद्श्यपूर्ण फिल्म बनाना आज वैसे भी लीक से हट कर चलना है । उस पर विषय की प्रस्तुति ऐसी है कि दर्शक में मन में गहराई तक उसका असर होता है और में वह इस समस्या से खुद को बेहद चिंतित पाता है । फिल्म को अनेक देशी-विदेशी अवार्ड मिले हैं । कलकी के रुप में तुलिक जोशी और जमींदार की भूमिका में सुधीर पांडे अद्भुत हैं । इनके अलावा सभी कलाकारों से मनीष झा ने बहुत सधा हुआ काम लिया है ।

Thursday, April 22, 2010

* हमारे गांधीजी !!!





आलेख 
जवाहर चौधरी 


गांधीजी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में जिस तरह चैंकाने वाले सच को स्वीकारा है वह उनके जैसे महात्मा के लिये ही संभव था । गांधी ने स्वीकारा कि वे पत्नी पर निगरानी रखते थे । नैतिक और धार्मिक शिक्षाओं के कारण वे मानते थे कि व्यक्ति को एकपत्नी-व्रत का पालन करना चाहिये , ..... फिर तो पत्नी को भी एकपति-व्रत का पालन करना चाहिये । यदि ऐसा है तो , मैंने सोचा कि मुझे पत्नी पर निगरानी रखना चाहिये ।

गांधीजी ने निडरता की बात कहीं हैं किन्तु वे डरपोक बहुत थे । वे कहते हैं - ‘‘ मैं चोर , भूत और सांप से डरता था । रात कभी अकेले जाने की हिम्मत नहीं होती थी । दिया यानी प्रकाश के बिना सोना लगभग असंभव था ।

सत्य, अहिंसा और शकाहार के समर्थक बापू ने कई बार मांसाहार किया था । ‘‘ ..... मित्रों द्वारा डाक बंगले में इंतजाम होता था । .... वहां मेज-कुर्सी वगैरह के प्रलोभन भी था । .... धीरे धीरे डबल रोटी से नफरत कम हुई ,बकरे के प्रति दया भाव छूटा और मांस वाले पदार्थो में स्वाद आने लगा । ...... एक साल में पांच-छः बार मांस खाने को मिला । ... जिस दिन मांस खा कर आता ... माताजी भोजन के लिये बुलातीं तो उन्हें झूठ कहना पड़ता कि ‘भूख नहीं है , खाना हजम नहीं हुआ है ’ ।

उन्हें बीड़ी पीने का शौक भी लगा और इसके लिये उन्होंने चोरी भी की । वे कहते हैं - ‘‘ एक रिश्तेदार के साथ मुझे बीड़ी पीने का शौक लग गया । गांठ में पैसे नहीं थे इसलिये काकाजी पीने के बाद जो ठूंठ वे फेंक देते थे , उन्हें हमने बीनना शुरु कर दिया । लेकिन ठूंठ हर समय नहीं मिल पाते थे इसलिये अपने यहां के नौकर की जेब से एकाध पैसा चुराने की आदत पड़ गई और बीड़ी खरीदने लगे ’’।

एक बार उन पर पच्चीस रुपए का कर्ज हो गया । उन्होंने लिखा कि - ‘‘ हम दोनों भाई कर्ज अदायगी के बारे में सोच रहे थे यानी चिंतित थे । भाई के हाथ में सोने का कड़ा था । उसमें से एक तोला सोना काट लेना मुश्किल नहीं था । कड़ा कटा । कर्ज अदा हुआ । इसके बाद ग्लानी से भरे ‘मोहन’ ने पिता को पत्र लिख कर अपनी गलती स्वीकारी ।

मोहनदास जब सोलह साल के थे तब की घटना स्तब्ध करने वाली है । ’’ ..... पत्नी गर्भवती हुई । ...... पिताजी लंबे समय से बीमार चले आ रहे थे ..... उनकी बीमारी बढ़ती जा रही थी । ... अवसान की घोर रात्रि समीप आ गई । रात साढ़े दस- ग्यारह बजे होंगे । मैं उनके पैर दबा रहा था , चाचाजी ने कहा ‘जा, अब मैं देखूंगा’ । .... मैं खुश हुआ और सीधा शयन कक्ष में पहुंचा । पत्नी बेचारी गहरी नींद में थी । पर मैं सोने कैसे देता ! .... मैंने उसे जगाया ..... पांच मिनिट बीते होंगे ....... पता चला कि पिता गुजर गए ! ..... ’’

विलायत में गांधी ने नाचना-गाना भी सीखा । ‘‘ विलायत में ..... सभ्य पुरुष को नाचना जानना चाहिये । ....... मैंने नृत्य सीखने का निश्चय किया । .... एक कक्षा में भर्ती हुआ , एक सत्र की फीस करीब तीन पाउण्ड जमा किये । उस समय यह रकम बड़ी थी । कोई तीन सप्ताह में छः सबक सीखे ।

पियानो बजाता था पर कुछ समझ में नहीं आता था । .... सोचा वायलियन बजाना सीख लूं ...... तीन पाउण्ड में वायलियन खरीदा और सीखने की फीस दी ’’ ।

विलायत में आहार को लेकर वे उदार रहे ,खासकर अंडों के लिये , लिखते हैं - ‘‘ ... स्टार्च वाला खाना छोड़ा , कभी डबल रोटी और फल पर ही रहा और कभी पनीर , दूध और अंडों का सेवन किया । ..... अंडे खाने में किसी जीवित प्राणी को दुख नहीं पहुंचता है । इस दलील के भुलावे में आ कर मैंने माताजी के सामने की हुई प्रतिज्ञा के रहते भी अंडे खाए । पर मेरा यह ;अंडा मोह थोड़े समय ही रहा । ’’

ब्रम्हचर्य पालन को लेकर गांधी के विचार खूब जाने जाते हैं , किन्तु इसे साधने में उन्हें बहुत कठिनाई हुई , - ‘‘ संयम पालन ब्रम्हचर्य की कठिनाइयों का पार नहीं था । हमने अलग अलग खाटें रखीं । रात में पूरी तरह थकने के बाद ही सोने का प्रयत्न किया । किन्तु इस सारे प्रयत्न का विशेष परिणाम मैं तुरंत नहीं देख सका । ’’

गांधीजी ने कभी गाली भी खाई होगी यह विश्वसनीय नहीं लगता है । कम से कम भारत में तो ऐसा नहीं हो सकता है , लेकिन हुआ । सन् 1891 के आपपास के समय वे काशी आए थे -- ‘‘ मैं काशी-विश्वनाथ के दर्शन करने गया । वहां जो देखा उससे मुझे बड़ा दुख हुआ । संकरी , फिसलन भरी गली से हो कर जाना था । शांति का नाम भी नहीं था । मक्खियों की भिनभिनाहट और दुकानदारों का कोलाहल असह्य था । ....... वहां मैंने ठग दुकानदारों का बाजार देखा । ..... मंदिर में पहुंचने पर सामने बदबूदार सड़े हुए फूल मिले । .... अंदर भी गंदगी थी । .... मैं ज्ञानवापी में गया , वहां भी गंदगी थी । दक्षिणा के रुप में कुछ भी चढ़ाने की मेरी श्रद्धा नहीं थी इसलिये मैंने सचमुच ही एक पाई चढ़ाई जिससे पुजारी तमतमा उठे । उन्होंने पाई फैंक दी । दो-चार गालियां दे कर बोले -‘ तू यों अपमान करेगा तो नरक में पड़ेगा ’ ।

ये गांधी के सच की कुछ बानगियां थीं । हमारी नई पीढ़ी को इनसे उनके सोच और जीवन के अनछुए पक्षों का पता चलता है । उन्होंने यह सच उस समय कहा जब वे महात्मा हो गए थे । गांधी का यह सच जान कर भी हमारे मन में उनके प्रति आस्था कम नहीं होती है अपितु बढ़ती है ।

Sunday, March 21, 2010

* लिपि और भाषा का जीवन


आलेख 
जवाहर चौधरी 

देवनागरी लिपि को लेकर समय समय पर चर्चा होती है । आज स्थितियां ऐसी हैं कि किसी भी ‘भाषाप्रेमी’ का चिंतित हो जाना स्वाभाविक है । युवा पीढ़ी हमें अंग्रेजी में शिक्षा लेती दिखाई दे रही है , विज्ञापनों में अंग्रेजी है , बोलचाल में अंग्रेजी के शब्द चाहे-अनचाहे अपनी जगह बना चुके लगते हैं । एसएमएस और कंप्यूटर ने रोमन लिपि की सत्ता स्थापित कर दी है, ऐसा माना जाता है । इसीलिये अनेक लोगों को लग रहा है कि हिन्दी भाषा मर जाएगी यदि उसे रोमन में नहीं लिखा गया ।


भाषा और लिपि का संबंध शरीर और आत्मा का संबंध है । दोनों हैं तो पूर्णता है । लिपि को केवल माध्यम मान लेना गलती होगी। भाषा में व्याकरण के महत्व को खारिज नहीं किया जा सकता है । लिपि भाषा की पहचान होती है , खासकर उस वक्त जब वह बोली नहीं जा रही है । कोई भी भाषा केवल बोलव्यवहार नहीं है । किसी भाषा के कुछ शब्द सीख कर काम निकाल लेना अलग बात है । महानगरों में कामवाली बाइयां, ड्र्ायवर या होटल के बैरे भी अंग्रेजी बोलते देखे जा सकते हैं किन्तु वे रोमन लिपि को कितना जानते हैं बताना कठिन है । अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुलने के बावजूद आज भी अंग्रेजी हमारे यहां बड़ी समस्या है । अंग्रेजी में स्पेलिंग और व्याकरण की समस्या हमारे यहां चरम पर होती हैं । ऐसे में यह विचार क्यों नहीं आता है कि अंग्रेजी को देवनागरी लिपि में लिखी जाए ? क्या इससे अंग्रेजी को समझना, बोल व्यवहार में लाना ज्यादा आसान नहीं होगा ?

यही नहीं लिपि के साथ भाषा का इतिहास और साहित्य होता है । भाषा की समृद्धता उसके साहित्य में है । लिपि बदलने से संचित साहित्य कोष को कूड़ा बनाने देर नहीं लगेगी ! जीवंत और समृद्ध भाषा बहते हुए पानी की तरह होती है । वह दूसरी भाषाओं के शब्द और साहित्य अपनाती है । हिन्दी में संस्कृत के अलावा अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी आदि भाषाओं के शब्द बड़ी संख्या में प्रचलित हैं । न केवल बोल व्यवहार में अपितु देवनागरी में भी । ऐसे में यदि हम हिन्दी की लिपि बदल देंगे तो भाषा की पहचान समाप्त हो जाएगी । लिपि के साथ छेड़छाड़ संस्कृति और इतिहास के साथ भी छेड़छाड़ है । यदि उच्चारण दोष के कारण किन्हीं क्षेत्रों में कुछ शब्दों को भिन्न प्रकार से या गलत बोला जाता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि लिपि का बदला जाना उचित है । अंग्रेजी विश्व के अनेक देशों में बोली-लिखी जाती है किन्तु सब जगह अलग ढंग से । भारत की अंग्रेजी ‘इंडियन-इंग्लिश’ है । हिन्दी में ‘जनता’ को कुछ जगहों पर ‘जन्ता’ बोला जाता है तो यह क्षेत्रीय प्रभाव या उच्चारण दोष है । जहां भी लिपि बदली है हमने भाषा को बिगाड़ा ही है । मसलन योग को ‘योगा’, मौर्य सम्राट अशोक को ‘मोरया सम्राटा अशोका’, मोतवानी को ‘मोटवानी’ , मोतीवाला को ‘मोटीवाला’ श्रीवास्तव को ‘सिरीवास्तवा’ , मिश्र को ‘मिशरा’, शुक्ल को ‘शुक्ला’ बना दिया है । उर्दू का उदाहरण देते हुए कहा जाता है कि उर्दू बोलने वाले अधिकांश पाकिस्तान चले गए और सरकारी तौर पर उर्दू की पढ़ाई बंद हो गई लेकिन अब उर्दू देवनागरी में जिन्दा है । लेकिन हिन्दी भाषी अभी कहीं नहीं गए हैं , न ही हिन्दी की पढ़ाई बंद हो गई है । हिन्दी में के अखबार और पत्र-पत्रिकाएं देवनागरी में छप रहे हैं और उनकी प्रसार संख्या लाखों में व कहीं करोड़ का आंकड़ भी छू रही है । हिन्दी की किताबें हर साल अधिक संख्या में निकल रहीं हैं और साल में कई बार आयोजित पुस्तक मेलों में इनकी बिक्री आश्चर्यजनक बढ़त लेती है । विज्ञान विषयों का हिन्दी में खूब अनुवाद हो रहा है और बिक रहा है । इंटरनेट पर हिन्दी ने बजरदस्त कब्जा कर लिया है । आज मेल ही नहीं किसी भी विषय की जानकारी हिन्दी यानी देवनागरी में डाउनलोड की जा सकती है । हिन्दी ब्लाग संसार में बहुत लोकप्रिय हो गए हैं । हिन्दी भाषी नेता अब संसद में अधिक हैं और बहसें भी हिन्दी में हो जाती हैं । अनिच्छा से ही सही परंतु अब टीवी चैनलों में हिन्दी के चेनल ही मुख्य हैं । लिपि बदलने से हिन्दी को लाभ नहीं हानि ही अधिक होगी ।

Monday, March 8, 2010

* दरवाजे पर मुस्करा रहा है भाई !

    
आलेख 
जवाहर चौधरी 



 यह खबर चिंताजनक है कि असुरक्षा की आशंका के बिना चीन ने अपना रक्षा बजट बढ़ा कर भारत के रक्षा बजट से दुगना कर लिया है । भारत लगातार पाकिस्तान से तनावपूर्ण संघर्ष कर रहा है और पिछले दशक से चल रही आतंकवादी और अलगाववादी, खालिस्तान- आजाद कश्मीर आदि, गतिविधियों से भी जूझ रहा है । इधर तिब्बत और अरुणाचल को लेकर चीन से खतरा दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है । सिक्किम और नेपाल हमारी कमजोर कड़ियां साबित हो रहे हैं । बांग्लादेश केवल मुखमित्र है , उसके करोड़ों नागरिकों की घुसपैठ हमारी आंतरिक संरचना और व्यवस्था के लिये हानिकारक होती जा रही है । चीन न केवल अपनी भूमि से अपितु बर्मा, श्रीलंका आदि देशों की भूमि का उपयोग भी इस उदेश्य के लिये कर रहा है । कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि वह पाकिस्तान, भूटान, बांग्लादेश जैसे हमारे पड़ौसियों का इस्तेमाल भी हमारे खिलाफ करे ।

खतरा मात्र सैन्यशक्ति का ही नहीं है । चीन जिस तेजी से भारत के बाजार पर कब्जा कर रहा है वह हमारी दीर्धकालीन अर्थव्यवस्था के चिंताजनक है । चीन का मार्केटिंग मेनेजमेंट भी किसी हमले से कम नहीं है । यह चौंकाने वाली बात है कि उन्होंने विविधतापूर्ण भारत के चप्पे चप्पे का सूक्ष्म अध्ययन किया है । किस क्षेत्र की क्या विशेषता है , वहां किस विचार या मान्यता वाले लोग रहते हैं , कौन से त्योहार मानाते हैं, किन देवी-देवताओं को पूजते हैं, पूजा पदृति क्या है , उनकी जरुरतें क्या हैं , सब उन्हें पता है , और इसके अनुसार वह अपने उत्पाद बेच रहा है ! वैश्वीकरण के कारण शायद हमें आपत्ती नहीं करना चाहिये किन्तु चीनी माल दूसरे किसी भी उत्पाद की तुलना में मात्र बीस से पच्चीस प्रतिशत मूल्य पर उपलब्ध हैं !! तरक्की का कितना भी ढ़ोल पीट लिया जाए , भारत आज भी एक गरीब देश है । हल ही में एक ढ़ोंगी संत के भंडारे में एक समय के भोजन, एक स्टील की थाली और एक लड्डू पाने के लिये इतनी भीड़ उमड़ी कि भगदड़ में पैंसठ लोग मारे गए और हजारों घायल हुए । गरीब ही नहीं शेष लोग भी ‘एक के साथ एक फ्री ’ का आॅफर देखते ही टूट पड़ते हैं । ऐसे में यदि चीनी माल चैथाई कीमत पर मिले तो लोग दूसरा क्यों लेगें ? लेकिन इसका असर भयानक होता है । वाराणसी में बनारसी साड़ियों का परंपरागत उद्योग रहा है । कारीगर एक बनारसी साड़ी एक माह में बनाते थे जो तीन से पांच हजार रुपयों में बिकती थी । वैसी ही चीनी साड़ी आज मात्र चार सौ से सात सौ में बिक रही है और वाराणसी के कारीगर भुखमरी के कगार पर पहुंच गए है। इलेक्ट्र्ानिक उपकरणों में चीन का एकाधिकार ही हो गया है । बिजली के सामान का बाजार भी चीनी के हाथ में आ चुका है । पिछले पांच साल से देश अपना सबसे बड़ा त्योहार दीवाली चीनी लाइटिंग से मना रहा है । दैनिक उपयोग के तमाम उपकरण गैरंटी नहीं होने के बावजूद धडल्ले से बिक रहे हैं । मेड इन चाइना वाले हमारे देवी-देवताओं से बाजार अंटे पड़े हैं ! मनोरंजन का सामान, सजावट का सामान, जरुरी-गैरजरुरी सब चीन से आ रहा है !!


चीन के खतरनाक नेटवर्क को इससे समझा जा सकता है कि उसने पंजाब में अभी भी बह रही भिंडरावाले की हवा को ताड़ लिया हमारी राष्ट्र्ीय एकता को मुंह चिढ़ाते हुए भिंडरावाले से संबंधित कई तरह की सामग्री बाजार में उतार दी ! आज पंजाब में भिंडरावाले के फोटो युक्त स्टीकर , केलेन्डर, टी-शर्ट, घड़ियां , चाबी के गुच्छे, चाय-काफी के मग, आदि बड़ी संख्या में बिक रहे हैं । टी-शर्ट पर तो भिंडरावाले की एके-47 लिये फोटो छपी है जो शहरी ही नहीं गांव के युवाओं में आश्चर्यजनक रुप से लोकप्रिय है ! यह सामग्री जालंधर, पटियाला, लुधियाना या अमृतसर में ही नहीं , सरकार की नाक के नीचे, दिल्ली के बाजारों में भी बिक रही है ! खबरों में आया है कि भिंडरावाले के 20 रुपए कीमत वाले दो लाख केलेन्डर बिक चुके हैं !! ऐसी चीनी घड़ियां बिक रहीं हैं जिसके डायल पर भिंडरावाले के चित्र हैं ! हालांकि पंजाब के डीजीपी श्री पीएस गिल ने कहा है कि हमें इन गतिविधियों का पता है और हम इस पर कड़ी निगाह रखे हुए हैं !

प्रश्न केवल आर्थिक या बाजार का नहीं, सुरक्षा का है । डर इस बात का है कि हमारा एक बदनियत पड़ौसी हमारे अंदर तक घुस कर हमारे विचारों, संवेदनाओं और भावनाओं तक को सफलतापूर्वक पढ़ रहा है । इन सूचनाओं को आज वह अपने उद्योगों के पक्ष में उपयोग कर रहा है किन्तु कल भारत के खिलाफ किसी भी गतिविधि में कर सकता है । यदि वह बाजार के रणक्षेत्र में भी हमले जारी रखता है तो आने वाले दस वर्षों में हमारे अधिकांश छोटे-बड़े उद्योगों को अपना अस्तित्व बचाना संभव नहीं रहेगा । बाजार जिस तरह चीन की मुठ्ठी में है उससे उसकी योजना, दक्षता और इरादों का पता चलता है । बदनियत ताकतों ने मीना बाजार सजा लिये हैं , जिसे समझने की जरुरत है । पिछली बार हम ‘ हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ के नारे का स्वाद चख चुके हैं । अगर हम शुतुरमुर्ग रहे तो चीन अपना काम कर गुजरेगा और हमें वापस आजादी पाने में इस बार दो सौ से अधिक साल लगेगें ।

Friday, February 19, 2010

* बदली भूमिका में कौरव





आलेख 
जवाहर चौधरी 


तेलुगु लेखक वाई. लक्ष्मीप्रसाद के उपन्यास ‘द्रोपदी’ को किन्हीं लोगों ने पढ़ लिया है ! उसके चरित्र के बारे में समझ लिया है ! उसमें अश्लीलता दिखी ! वे आहत हुए हैं और इसे मुद्दा बना कर उन्होंने हंगामा मचाया है ! यह जान कर बड़ा संतोष होता है और यह बात भ्रम प्रतीत होती है कि हमारे यहां लोग साहित्य पढ़ते नहीं है, उनके पास उपन्यास जैसी बड़ी कृतियों को पढ़ने का समय नहीं है । इस बात पर मतभेद हो सकते हैं कि पढ़ने वालों ने तथ्यों को किस रुप में लिया । अनेक विद्वननुमा लोगों के बयान पढ़ने को मिले हैं कि मिथकों से ‘छेड़छाड़’ नहीं की जाना चाहिये । कुछ का कहना है कि यह बरदाश्त से बाहर है । मिथकों को ले कर यह अतिसंवेदनशीलता है , नादानी है या राजनीति इस पर शोध किये जाने की आवश्यकता से इंकार नहीं किया जाना चाहिये ।

बहरहाल , मिथक पर ही आएं । जैसा कि अन्य धर्मो में भी है , हिन्दू धर्म में अनुयाइयों को भी कथाओं के माध्यम से संदेश दिये गए हैं। कथाओं के पात्र कभी अस्तित्व में रहे हैं इस पर आस्था के अनुरुप मतभिन्नता हो सकती है । कथाओं के पात्र आदर्श , चमत्कारी या अतिमानवीय गुणों से सज्जित होने के कारण आमजन के मनोविज्ञान में ईश्वर के रुप में अपना स्थान बना लेते हैं । धर्म-कर्म में लगे लोग भी अपने प्रयासों से इस भावना को दृढ़ करने में अपनी युक्ति-शक्ति लगाते और सफल होते रहते हैं ।



जहां तक द्रोपदी का प्रश्न है , इस पात्र का स्थान देवी या ईश्वर के रुप में नहीं है । महाभारत में केवल कृष्ण ही देवपात्र हैं । उन्हीं की पूजा होती है , उन्हीं के मंदिर देशभर में पाए जाते हैं । किन्तु महाभारत के अन्य सैकड़ों पात्र कहीं भी देव-समान नहीं माने जाते हैं । अपवाद स्वरुप महाभारत के एक-दो पात्रों के मंदिर हो सकते हैं लेकिन हमारे यहां मंदिर तो अमिताभ बच्चन और एश्वर्या के भी हैं ! रही बात अश्लीलता और अपमान की तो बहुत सी बातों पर गौर करने की जरुरत है । देश भर में कहीं भी देखा जा सकता है कि बहुरुपिये शिवजी, राम, कृष्ण, माता कालका, दुर्गा , सरस्वती , लक्ष्मी आदि का रुप धरे भीख मांगते रहते हैं । क्या यह देवी-देवताओं का और उससे ज्यादा स्थापित हो चुकी आस्थाओं का अपमान नहीं है ! दीवाली जैसे त्योहार पर लक्ष्मीजी के चित्र की पूजा करने लक्ष्मीछाप पटाखे निलिप्त भाव से चलाते हैं । अखबारों में ईश्वरों के जन्मदिन पर फोटो छपते हैं और उनका जिस तरह रद्दीकरण होता है उसका विवरण न ही दिया जाए तो ठीक है । शहरों-गांवों में जगह जगह मंदिर बना कर उन्हें लावारिस हालत में छोड़ देने की प्रवृत्ति आम है । प्रायः उन जगहों पर अगरबत्ती या दीपक लगाना तो दूर की बात है कोई सफाई करने भी नहीं आता है । बेचारे ईश्वर निरीह अवस्था में पड़े धूल सेवन करते रहते हैं । महत्वपूर्ण देव शनीमहाराज हर हप्ते भीख का कितना बड़ा जरिया बनते हैं इस पर किसी की नजर नहीं है !! उपन्यास में किसी चरित्र पर कुछ लिखे जाने पर जो लोग आहत होते हैं वे उपरोक्त बातों से अनभिज्ञ हैं ऐसा तो नहीं ही कहा जाना चाहिये , ये हो सकता है कि इस पर राजनीति करना अभी शेष है ।
               आश्चर्य और दुःख है कि साहित्य अकादेमी के पुरस्कार समारोह में उस समय अश्लील नारे लगाए गए जब वाय. लक्ष्मीप्रसाद का नाम पुकारा गया और प्रशस्तिवाचन आरंभ हुआ । ऐसी तख्तियां दिखाई गईं जिस पर लिखा था- ’ वाई. लक्ष्मीप्रसाद को जूते मारो ’ ! नारे लगाए गए कि ‘ भारतीय मूल्यों का अपमान, नहीं सहेगा हिन्दुस्तान ’ ! कुछ लोगों ने अतिथियों पर पुस्तिकाएं फैंकी जिनका वजन दो सौ ग्राम तक था । किसी व्यक्ति ने कहा कि ‘ यह भारतीय संस्कृति के खिलाफ है और हमारे पूर्वजों का अपमान है ’। द्रोपदी जब  पूर्वज है तो कौरव भी है , घ्रतराष्ट्र् भी हैं !! क्या इस बौद्धिक-दीनता पर कोई टिप्पणी करने की जरुरत है ? वाई. लक्ष्मीप्रसाद ने सवाल किया कि विरोध करने वालों में से कितने हैं जिन्होंने इस उपन्यास को पढ़ा है !? अभी हिन्दी भाषी क्षेत्र में यह पुस्तक अधिक नहीं पढ़ी गई है, लेकिन अब लोग इसे अवश्य पढ़ना चाहेंगे । क्या परिषदों, समितियों, मंचों, संघों या कोई सेना में केवल ऐसे लोग ही हैं जिन्हें रोबोट की तरह इस्तेमाल किया जाता है । एक प्रोग्रामिंग कर दी कि इस बात के खिलाफ हंगामा करना है और वह होता रहता है  ! जहां तक मिथकों से छेड़छाड़ का सवाल है , कलाओं में यह कोई नई बात नहीं है । छोटे से लेख में विस्तार संभव नहीं है किन्तु गणपतिजी को ही लें । उनकी आकृति से जो होता है वह किसी छेड़छाड़ से कम है !! बाइक चलाते , हैट और पतलून-बूशर्ट पहने, तरह तरह की पगड़ियां पहने गणेश किसने नहीं देखे हैं ! रामलीलाओं में हनुमान और दूसरे पात्रों से मनोरंजन नहीं करवाया जाता है ? सिनेमा और नाटकों में मिथकीय पात्र हमेशा गंभीरता के साथ ही प्रस्तुत किये जाते हैं ? इसकी वजह यह है कि सहिष्णुता हमारी संस्कृति है , व्यापक दृष्टि और उदार सोच हमारा आधार है । तब प्रश्न यह है कि एक साहित्यिक कृति और उसके लेखक पर ही वक्रदृष्टि क्यों !?
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Monday, February 8, 2010

* बेटों के हाथ में मां की मौत की लकीर !

आलेख 
जवाहर चौधरी 



दिल्ली देश की राजधानी ही नहीं आधुनिक नगर भी है । यहां लोग शिक्षित , उद्यमी , सम्पन्न और दूसरों से प्रायः हर दृष्टि से आगे दिखाई देते हैं । राजधानी होने के कारण दिल्ली वालों में अन्यों की तुलना में जागरूकता भी अधिक है । पुलिस और कानून व्यवस्था अन्य राज्यों की अपेक्षा चुस्त-दुरूस्त है । बावजूद इनके पिछली साल की यह खबर दुखद है कि गाजियाबाद में तीन भइयों ने तांत्रिकों के चक्कर में अपनी मां की हत्या कर दी । चैंकाने वाली बात यह है कि इन भाइयों में एक इंजीनियरिंग का छात्र है दूसरा एमबीए की पढ़ाई कर रहा है और तीसरा बारहवीं की परीक्षा दे चुका है !! इन लोगों ने हत्या के लिये अपने एक चचेरे भाई की मदद भी ली , वह भी शिक्षित है । बाद में तांत्रिक के इस सुझाव पर कि मां को वापस जीवित करने के लिये चार लड़कियों की बलि दी जाना जरूरी है , भाइयों ने अपनी बहन और उसकी तीन ननदों को यह कह कर बुलवाया कि मां की तबियत ठीक नहीं है फौरन आ जाओ । उनके आते ही चारों भाइयों ने इन लड़कियों पर दरातों से जानलेवा हमला किया किन्तु चीख-पुकार से भीड़ जुट जाने के कारण वे बच गईं और गंभीर हालत में अस्पताल पहुंचाईं गईं । चारों भाई दबोचे गए और अब सलाखों के पीछे हैं ।




यह घटना हमारे सामने कई सवाल खड़े करती है । आखिर वो कौन सी स्थितियां हैं जो हमारे युवाओं को तांत्रिकों के चक्कर में डालती है ! उपरोक्त घटना किसी पिछड़े इलाके में अपढ़ लोगों के बीच घटती हुई होती तो इसके कारण तय करना कठिन नहीं था । दिल्ली में रहते हुए , इंजीनियरिंग और एमबीए जैसी विज्ञान सम्मत पढ़ाई करने वाले तांित्रकों की शरण में चले जांए और मां की हत्या तक कर दें !! यह चिंता और चिंतन के लिये उच्च प्राथमिकता वाला विषय है । यह जानना जरूरी है कि वो कौन सा भय है जो हमारे युवाओं को तंत्र-मंत्र, अंगूठी-नगीनों और छू-छा की ओर ले जाता है । हमारी शिक्षा में जरूर कोई कमी है जो डिग्रियां तो दे रही है लेकिन विज्ञान का ज्ञान या वैज्ञानिक दृष्टि नहीं । टीवी, कम्प्यूटर, आईपाड, लेपटाप, मोबाइल, बाइक जैसे विज्ञान के चमत्कारों से लदी-फंदी रहने वाली पीढ़ी कैसे अन्धविश्वास के दलदल में फंस रही है ।

Thursday, February 4, 2010

* पांच दिनों से टेबल पर पड़ी लाश !



आलेख 
जवाहर चौधरी 


आज बच्चा जिस समाज में जन्म लेता है वो समाज भागता-दौड़ता, प्रतिस्पर्धा में हांफता समाज होता है । हर घर में जीवन से ज्यादा चिंता जीवन चलाने की होती है । प्रायः बच्चा ढ़ाई साल की उम्र में ही प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में धकेल दिया जाता है । तीस-पैंतीस साल की आयु तक हमारे बच्चे हाथ पैर मार रहे होते हैं लेकिन ज्यादातर को ढ़ंग का ठौर ठिकाना या करियर नहीं मिल पाता है । जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा जीने की तैयारी में निकल जाता है और कुछ करने-रचने की स्थिति आते आते दोपहर ढलती दिखाई देने लगती है ।


पश्चिम को अपना आदर्ष मानने और अनुकरण करने वाले हम गरीब देश प्रायः उन बातों को अनदेखा कर देते हैं जो धीमे जहर की तरह हमारे लिये घातक बन रही है । गत वर्ष की एक घटना है । अमेरिका में जार्ज नाम का व्यक्ति एक कंपनी में पिछले तीस वर्षों से काम कर रहा था । इस दफ्तर में अन्य कई लोग भी काम करते हैं , कार्य सतत् शिफ्टों में चलता है । जार्ज के पास भी उसके कार्य का दायित्व था जिसकी साप्ताहिक रिपोर्ट देना होती थी । एक सोमवार दफ्तर में उसे हार्ट अटैक हुआ और वह अपनी टेबल पर सर रखे अचेत हो गया तथा बाद में मर गया । लेकिन टारगेट हांसिल करने के चक्कर में कागजों में डूबे रहने वाले कर्मचारियों में से किसी का ध्यान उसकी ओर नहीं गया । सब अपना काम करते आते और जाते रहे । सप्ताहंत में जब सफाई कर्मचारी काम कर रहा था तो उसने देखा कि जार्ज मर चुका है । पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पाया गया कि उसकी मृत्यु पांच दिन पूर्व हो चुकी है ।

यह खबर चैंकाने वाली है किन्तु पश्चिम समाज में आज के समय में यह संभव है । समझ में यह नहीं आता कि घन के पीछे सब कुछ भूल कर रात दिन भागते रहने का कारण क्या है ! आखिर संपन्नता का लक्ष्य क्या है ? दफ्तर के साथी काम के इतने दबाव में क्यों हैं कि उन्होंने पांच दिनों से मरे पड़े अपने साथी की सुध नहीं ली ! परिवार वाले कहां व्यस्त थे ! माना कि वहां परिवार के सदस्य अलग अलग समय में आ कर विश्राम कर वापस काम पर लौट जाते हैं और प्रायः सप्ताहांत में ही मिलते हैं । लेकिन क्या पांच दिनों तक उन्हें फोन पर संवाद करने का भी समय नहीं मिला ! जरूरत नहीं होने पर भी संवाद करना क्या वहां परिवार की आवश्यकता नहीं है ?! किसी अनजानी सफलता या लक्ष्य को पा लेने में अपने को काम में झोंके रखना एक नशा या लत तो नहीं है ! जिनकी आवश्यकता हजारों की है उन्हें लाखों क्यों चाहिये ! जो लाखों पा रहे हैं वे करोडों के लिये क्यों दौड़े जा रहे हें ! उन्हें क्यों पता नहीं पड़ता कि इस दौड़ के चलते वे कब मनुष्य से मशीन बन गए हैं । उनके पास अपने परिवार के लिये समय नहीं हैं , न मित्रों के लिये है और न ही स्वयं अपने लिये । ज्यादा समय वे थके और चिड़चिड़े से रहते हैं । उन्हें ठीक से नींद भी नहीं आती है । प्रायः वे सिर दर्द , बदन दर्द और पेनकिलर्स को अपना जीवन साथी बना चुकते हैं । उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियां कब प्रेयसी की तरह दिल में जगह बना लेतीं हैं पता नहीं चलता ! अक्सर युवावस्था में ही हमारी मानव मशीनें डाक्टर और दवा के सहारे हो जाती हैं । हासिल होने के बाद भी दौलत काम आ जाए यह जरूरी नहीं है । विकास के नाम पर ये किस तरह के समाज की रचना कर ली है हमने !

जिस तरह पश्चिम और उसकी कार्य संस्कृति हमारे यहां फैल रही है वह चिंता जनक है । भरपूर वेतन के प्रस्ताव के साथ सात दिन-चैबीस घंटों की मांग करने वाले विज्ञापन दिखाई देने लगे हैं । क्या अधिक वेतन के लालच में हम अपने बच्चों या परिवार के किसी भी सदस्य को इस तरह के दलदल में फैंक देंगे ? परिवार की भूमिका इस मामले में अहम होनी चाहिये । स्वास्थ्य या जान की कीमत पर कुछ गैरजरूरी आवश्यकताएं तत्काल पूरी होने से रह भी जाएं तो परिवार को धैर्य रखना चाहिये ।